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________________ ( ३५० । द्रव्यानुयोग-(१) हैं, अनाहारक नहीं। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरी जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। अशरीरी सिद्ध अनाहारक होते हैं। आहार पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा अनाहारक होते हैं, किन्तु शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व की अपेक्षा कभी आहारक और कभी अनाहारक होता है। नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी, अकषायी, अवेदी आदि स्थितियां केवलज्ञानी में होने से इनमें रहा हुआ जीव कदाचित् आहारक होता है तथा कदाचित् अनाहारक। नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक, अलेश्यी, नोसंयत-नोअसंयत, अयोगी, अशरीरी आदि अवस्थाएँ सिद्धों में होने से इन अवस्थाओं के जीव अनाहारक ही होते हैं, आहारक नहीं। सामान्यदृष्टि से उत्पत्ति के प्रथम समय में जीव कभी आहारक होता है, कभी अनाहारक होता है, द्वितीय एवं तृतीय समयों में भी कभी आहारक होता है और कभी अनाहारक होता है किन्तु चतुर्थ समय में तो नियम से आहारक होता है। चौथा समय एकेन्द्रिय जीवों को ही लगता है, अन्य को नहीं। अल्प आहार की दृष्टि से जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में अथवा भव के अन्तिम समय में सबसे अल्प आहार वाला होता है। गर्भज जीव के आहार के सम्बन्ध में इस अध्ययन में विशेष विचार हुआ है, जिसके अनुसार गर्भ में उत्पन्न होते ही जीव सर्वप्रथम माता के रज और पिता के शुक्र से निर्मित कलुष और किल्विष आहार करता है। उसके पश्चात् वह माता के द्वारा गृहीत आहार के एक भाग को ग्रहण करता है। गर्भगत जीव के मल, मूत्र, कफ आदि नहीं होते हैं क्योंकि वह गृहीत आहार को श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में तथा हड्डी, मज्जा, केश, नख आदि के रूप में परिणत करता है। गर्भगत जीव कवलाहार नहीं करता। वह सब ओर से आहार करता है, सारे शरीर से परिणमाता है, सर्वात्मना उच्छ्वास लेता है, सर्वात्मना निःश्वास लेता है। रसहरणी नाड़ी के माध्यम से वह माता से आहार ग्रहण करता है। पृथ्वीकाय; अप्काय और वायुकाय के जीव जब मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, तब वे जहाँ उत्पन्न होना हो वहाँ कभी पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं और कभी पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं। ये जीव मारणान्तिक समुद्घात से जब देश (आंशिक रूप) से समवहत होते हैं तब पहले आहार करते हैं और पीछे उत्पन्न होते हैं तथा जब सर्व (पूर्ण रूप) से समवहत होते हैं तब पहले उत्पन्न होते हैं और पीछे आहार करते हैं। अध्ययन के उपसंहार में आहार करने वाले जीवों को दो प्रकार का निरूपित किया गया है-छद्मस्थ आहारक और केवली-आहारक। अनाहारक जीव भी दो प्रकार के कहे गये हैं-छद्मस्थ अनाहारक और केवली अनाहारक। केवली-अनाहारक भी दो प्रकार के हैं-सिद्धकेवली अनाहारक और भवस्थ केवली अनाहारक। सिद्धकेवली अनाहारक सादि अपर्यवसित हैं जबकि भवस्थ केवली-अनाहारक दो प्रकार के होते हैंसयोगि-भवस्थ-केवली-अनाहारक और अयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक। छद्मस्थ आहारक का जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट दो समय होता है। केवली आहारक का अन्तरकाल जघन्य उत्कृष्ट से रहित तीन समय है। छद्मस्थ के अनाहारक काल का अन्तर दो समय कम लघुभवग्रहण जितना है। सयोगि भवस्थ केवली का अनाहारक अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है। अयोगि भवस्थकेवली के अनाहारक होने का अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सिद्ध केवली के अनाहारकत्व का भी अन्तरकाल नहीं है। आहारक एवं अनाहारकों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि अनाहारकों की अपेक्षा आहारक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहार के सम्बन्ध में जो वर्णन इस अध्ययन में हुआ है उससे विविध जानकारियाँ मिलती हैं। शाकाहार-मांसाहार की दृष्टि से यहाँ आहार का विवेचन नहीं है, किन्तु जो आहार किया जाता है उसमें अनेक त्रस-स्थावर प्राणी अचित्त होते हैं, यह उल्लेख अवश्य है। आहार ही इन्द्रियादि के रूप में परिणमित होता है। इसका आशय यह भी है कि इन्द्रियादि की शक्ति बनाए रखने के लिए भी आहार की निरन्तर आवश्यकता रहती है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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