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________________ आहार अध्ययन ३४९ सूत्रकृताङ्क सूत्र में आहार-परिज्ञा अध्ययन है, उसे भी यहाँ आहार-अध्ययन में सम्मिलित किया गया है। आहार - परिज्ञा अध्ययन में वनस्पति, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकाय तथा मनुष्य एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के आहार के साथ उनकी उत्पत्ति, पोषण, संवर्द्धन आदि की चर्चा भी व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत हुई है। देवों एवं नारकों के आहार का वर्णन आहारपरिज्ञा- अध्ययन में नहीं है। वनस्पतिकाय के जीव पृथ्वीयोनिक, वृक्षयोनिक, अध्यारोहयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक, उदकयोनिक आदि विविध प्रकार से उत्पन्न होते हैं। ये नाना प्रकार के त्रास-स्थावर जीवों का आहार करते हैं तथा नाना प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं। इस अध्ययन में वनस्पतिकाय के विविध जीवों के नाम दिए गए हैं। वनस्पतिकाय के पश्चात् द्वीन्द्रिय आदि उस प्राणियों का वर्णन है। उन्हें भी पृथ्वीयोनिक, वृक्षयोनिक, अध्यारोहयोनिक, तृणयोनिक, औषधियोनिक, हरितयोनिक, उदकयोनिक आदि कहकर उनमें उत्पन्न एवं लब्धजन्म कहा है। ये जीव भी स्थावर एवं त्रस- प्राण शरीरों का आहार करते हैं तथा नाना प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं। मनुष्य अनेक प्रकार के कहे गए हैं-कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तरद्वीपज, आर्य और म्लेच्छ ये प्रारम्भ में माता के ओज और पिता के शुक्र से संसृष्ट आहार करते हैं। तदनन्तर माता के द्वारा गृहीत आहार में से रसहरणी नाड़ी के द्वारा सार खींच लेते हैं। नवजात शिशु की अवस्था में माता का दूध पीते हैं। बड़े होकर ओदन, कुल्माष और त्रस-स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। नाना प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं। जीवों के शरीर नानावर्ण यावत् नाना प्रकार के पुद्गलों से विरचित होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव जलचर, चतुष्पद, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प एवं खेचर के भेद से पांच प्रकार के हैं। मच्छ, कच्छप, ग्राह, मगर और सुंसुमार जीव जलचर हैं। चतुष्पद स्थलचर जीव एक खुर, दो खुर, गंडीपद, सनखपद आदि हैं। सर्प, अजगर, आसालिक और महोरग जीव उरपरिसर्प हैं। गोह, नेवला, सेहा आदि जीव भुजपरिसर्प हैं। धर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गपक्षी और विततपक्षी जीव खेचर हैं। ये पाँचों प्रकार के तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव सर्वप्रथम माता के ओज और पिता के शुक्र से संसृष्ट आहार लेते हैं। फिर माता के द्वारा गृहीत आहार में से आहार लेते हैं। गर्भ का परिपाक होने पर कभी अंडे के रूप में, कभी पोत के रूप में उत्पन्न होते हैं, फिर स्त्री, पुरुष या नपुंसक के रूप में उत्पन्न होते हैं। नवजात शिशु की अवस्था में जलचर जीव जल-स्नेह का आहार लेते हैं, चतुष्पद-स्थलचर जीव दूध और घी का आहार करते हैं। उरपरिसर्प व भुजपरिसर्प जीव वायुकाय का आहार करते हैं, खेचर जीव माता के मातृ-स्नेह का आहार करते हैं। बड़े होकर ये जीव पृथ्वी यावत् त्रस-प्राण शरीर का आहार करते हैं और नाना प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं। कुछ त्रस जीव नानाविध योनिक हैं। अप्काय के जीव नानाविध त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं, और नाना प्रकार के त्रस-स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त करते हैं। अग्निकाय के जीव त्रसस्थावरयोनिक अग्नियों एवं अग्नियोनिक अग्नियों के स्नेह का आहार करते हैं। वायुकाय के जीव नानाविध त्रस-स्थावर प्राणियों के स्नेह एवं वायुयोनिक वायुओं के स्नेह का आहार करते हैं। पृथ्वीकाय के जीव नानाविध त्रस स्थावर प्राणियों के स्नेह एवं पृथ्वीयोनिक पृथ्वियों के स्नेह का आहार करते हैं। वनस्पतिकाय के जीव वर्षाकाल में सबसे अधिक आहार करते हैं तथा ग्रीष्मऋतु में सबसे कम आहार लेते हैं। वनस्पतिकाय के मूल, मूल-जीवों से व्याप्त होते हैं, कन्द कन्द-जीवों से व्याप्त होते हैं यावत् बीज बीज-जीवों से व्याप्त होते हैं। नैरयिक आदि सभी जीव वीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं तथा अवीचिद्रव्यों का भी आहार करते हैं। एक प्रदेश न्यून द्रव्यों के आहार को वीचिद्रव्यों का आहार तथा परिपूर्ण द्रव्यों के आहार को अवीचिद्रव्यों का आहार कहते हैं। प्रायः जीव आहार रूप से गृहीत पुद्गलों के असंख्यातवें भाग का आहार रूप से ग्रहण करते हैं तथा अनन्तवें भाग का निर्जरण होता है। जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं उन्हें जानते-देखते हैं या नहीं इसका भी इस अध्ययन में निरूपण हुआ है। निर्जरा पुद्गलों का आहार ग्रहण करने तथा उन्हें जानने-देखने का भी कथन हुआ है। इसी अध्ययन में आहार के सम्बन्ध में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति इन तेरह द्वारों से भी विचार किया गया है। इन समस्त द्वारों में एकत्व एवं बहुत्व (जीवों) की अपेक्षा से आहारक होने या अनाहारक होने के विविध भंगों में कथन हुआ है। आहार करने वाले जीव को आहारक तथा नहीं करने वाले को अनाहारक कहा जाता है। समुच्चय जीव चार अवस्थाओं में अनाहारक होता है - (१) विग्रहगति की अवस्था में, (२) केवलि-समुद्घात के समय, (३) शैलेशी अवस्था में, (४) सिद्ध अवस्था में। इन चार अवस्थाओं के अतिरिक्त सभी जीव आहारक होते हैं। इस दृष्टि से सभी सिद्ध जीव अनाहारक होते हैं तथा संसारी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी। संसारी जीवों में जहाँ विग्रहगति संभव नहीं है वहाँ वे आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं। यथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक ही होता है क्योंकि इस दृष्टि में मरण नहीं होने से विग्रहगति नहीं होती। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अवधिज्ञानी आहारक ही होता है, अनाहारक नहीं। मनःपर्यवज्ञानी मनुष्य भी अनाहारक नहीं होते। केवलज्ञानी आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी। जब वे समुद्घात करते हैं तब अनाहारक होते हैं तथा शेष समय में आहारक होते हैं। विग्रहगति में विभंगज्ञान न होने के कारण विभंगज्ञानी मनुष्य और तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। इसी प्रकार मनोयोगी और वचनयोगी आहारक ही होते
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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