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________________ आहार - अध्ययन : आमुख आहार संसारी जीवों की महती आवश्यकता है। विग्रहगति के अतिरिक्त संसारस्थ सकषायी जीव आहारयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करते रहते हैं। आहार से ही औदारिक, वैकिय आदि तीन शरीरों, पर्याप्तियों, इन्द्रियों आदि का निर्माण कार्य सम्पन्न होता है। विग्रहगति के अतिरिक्त केवलि समुद्घात, शैलेशी अवस्था और सिद्ध होने पर आहार नहीं किया जाता। " आहार के विविध प्रकार हैं। नैरयिकों का आहार उष्णता एवं शीतलता के आधार पर चार प्रकार का प्रतिपादित है- अंगारोपम, मुर्मुरोपम, शीतल और हिमशीतल । इनमें अंगारे के समान दाह वाले (अंगारोपम) की अपेक्षा मुर्मुरोपम अधिक दाह का द्योतक आहार है। इसी प्रकार शीतल की अपेक्षा हिमशीतल अधिक शीतल आहार का द्योतक है। तिर्वञ्च जीवों के आहार को कंकोपम, बिलोपम, पाणमांशीपम एवं पुत्रमांसोपम के भेद से चार प्रकार का निरूपित किया गया है। मनुष्यों का आहार अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य के भेद से चार प्रकार का है। यही चार प्रकार का आहार मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ के आधार पर आठ प्रकार का हो जाता है। देवों के आहार को वर्णादि के आधार पर चार प्रकार का बतलाया है-वर्णवान्, गंधवान्, रसवान् और स्पर्शवान् । स्थानांग सूत्र में आहार के उपस्कर सम्पन्न आदि चार अन्य प्रकार भी निरूपित हैं। ********.. 'सचिताहारठ्ठी .... कायव्वा' गाथाओं के अन्तर्गत ग्यारह द्वारों का कथन है। इन ग्यारह द्वारों के आधार पर इस अध्ययन में २४ दण्डकों में आहार का विवेचन हुआ है। इन द्वारों में आहार के सचित्तादि भेदों, आहारेच्छा, आहारेच्छाकाल आदि अनेक विषयों पर विचार हुआ है। प्रथम द्वार सचित्ताहारी आदि से सम्बद्ध है, जिसके अनुसार नैरयिक एवं देव अचित्ताहारी होते हैं तथा पृथ्वीकाय से लेकर मनुष्य तक के सभी जीव सचित्ताहारी, अचित्ताहारी एवं मिश्राहारी होते हैं। द्वितीय द्वार से अष्टम द्वार तक एक साथ विचार हुआ है। दूसरे द्वार के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चौबीस दण्डकों के सभी जीव आहारार्थी होते हैं। सबको आहार की अभिलाषा होती है। आहारेच्छा कितने काल में उत्पन्न होती है, इस पर विचार करते समय आहार के दो भेद किए गए हैं- १. आभोग निर्वर्तित और २. अनाभोगनिर्वर्तित। इनमें से अनाभोग निर्वर्तित आहार प्रतिसमय होता रहता है क्योंकि यह अपने आप होता है, इसके लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। आभोगनिर्वर्तित आहार के लिए जघन्य एवं उत्कृष्ट अलग अलग काल निर्धारित हैं। एकेन्द्रिय जीवों का वैशिष्ट्य है कि वे बिना विरह के निरन्तर प्रतिसमय आहार करते हैं। वैमानिक देवों में जघन्य दिवस पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्षों में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इन ग्यारह द्वारों में आहार के लोमाहार, प्रक्षेपाहार, ओजाहार और मनोभक्षी आहार भेद भी प्रकट हुए हैं जो आहार करने की विधि पर आधारित हैं। लोमों या रोमों के द्वारा जो आहार किया जाता है उसे लोमाहार कहते हैं। कवल या ग्रास के रूप में मुख के द्वारा जो आहार किया जाता है उसे कवलाहार या प्रक्षेपाहार कहते हैं। सम्पूर्ण शरीर के द्वारा आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना ओजाहार कहा जाता है। मन के द्वारा आहार ग्रहण करने को मनोभक्षी आहार कहते हैं। लोमाहार सभी २४ दण्डकों के जीव करते हैं। प्रक्षेपाहार द्वीन्द्रिय से लेकर मनुष्य तक के औदारिक शरीरी जीव 'करते हैं। नैरयिक एवं देवगति के जीव वैक्रिय शरीरधारी होने के कारण प्रक्षेपाहार अर्थात् कवलाहार नहीं करते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के मुख नहीं होता अतः वे भी कवलाहार नहीं करते हैं। शेष सब कवलाहारी होते हैं। दिगम्बर मान्यता के अनुसार केवली मनुष्य कवलाहारी नहीं होते हैं, मात्र रोमाहारी होते हैं जबकि श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार केवली कवलाहारी भी होते हैं। ओजाहार सभी अपर्याप्तक जीव करते हैं। पर्याप्तक होने पर वे रोमाहार या प्रक्षेपाहार करते हैं। मनोभक्षी आहार केवल देवों में उपलब्ध होता है। एक प्रश्न उठाया गया कि जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे उन पुद्गलों को बार-बार किस रूप में परिणत करते हैं। इसके उत्तर का सारांश यह है कि जो जीव जितनी इन्द्रियों से युक्त है वह उस आहार के पुद्गलों को उन उन इन्द्रियों के रूप में परिणत करता है। एकेन्द्रिय जीव अपने आहार पुद्गलों का परिणमन स्पर्शनेन्द्रिय के रूप में, द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन एवं रसनेन्द्रिय के रूप में, त्रीन्द्रिय जीव स्पर्शन, रसना एवं प्राणेन्द्रिय के रूप में, चतुरिन्द्रिय जीव चक्षु इन्द्रिय सहित चार इन्द्रियों एवं पंचेन्द्रिय जीव श्रोत्रेन्द्रिय सहित पाँच इन्द्रियों के रूप में परिणमन करते हैं। यह परिणमन शुभ रूप में अथवा अशुभ रूप में होता है। वर्तमान में जो जीव जितनी इन्द्रिय वाले हैं वे उतनी ही इन्द्रिय वाले स्व-शरीर का आहार करते हैं। अतीत काल की अपेक्षा अर्थात् पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के शरीरों का आहार करते हैं। जैसे नैरयिक जीव वर्तमान काल में पंचेन्द्रिय होने के कारण पंचेन्द्रिय शरीर का आहार करते हैं तथा अतीतकाल की अपेक्षा वे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि सभी जीवों की पर्याय भोग चुके हैं अतः इनके शरीरों का भी उन्होंने आहार किया है। ३४८
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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