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________________ ३४४ द्रव्यानुयोग-(१) ४. कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्टिकावर्त्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टिकान्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिशृंग, कृष्टिसृष्ट, कृष्टिकूट और कृष्ट्युत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम की कही गई है। ४. जे देवा किटिंठ सुकिटिंठ किट्ठियावत्तं किट्ठिप्पभं किठिकंतं किट्ठिवण्णं किट्ठिलेसं किट्ठिज्झयं किछिसिंगं किट्ठिसिट्ठ किठ्ठिकूडं किठुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। -सम. सम.४, सु.१५ जे देवा वायं सुवायं वायावत्तं वायप्पभं वायकंतं वायवण्णं वायलेसं वायज्झयं वायसिंगं वायसिट्ठ वायकूड वाउत्तरवडिंसगं, सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंग सूरसिटुं सूरकूडं सुरुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण पंच सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। -सम. सम. ५, सु. १९ ६. जे देवा सयंभू सयंभूरमणं घोसं सुघोसं महाघोसं किट्ठियोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीरावत्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंग वीरसिट्ठ वीरकूडं वीरुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। -सम. सम.६, सु. १४ ७. जे देवा समं समप्पभं महापभं पभासं भासुर विमलं कंचणकूडं सणंकुमार-वडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। -सम. सम.७, सु.२० ८. जे देवा अच्चिं अच्चिमालिं वइरोयणं पभंकर चंदाभं सुराभं सुपइट्ठाभं अगिच्चाभं रिट्ठाभं अरुणाभं अरुणुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण अट्ठ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। -सम.सम.८,सु.१५ ९. जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पहं पम्हकंतं पम्हवण्णं पम्हलेसं पम्हज्झयं पम्हसिंगं पम्हसिट्ठ पम्हकूडं पम्हुत्तरवडिंसगं, सुज्ज-सुसुज्जं सुज्जावत्तं सुज्जपभं सुज्जकंतं सुज्जवण्णं सुज्जलेसं सुज्जज्झयं सुज्झसिंगं सुज्झसिट्ठ सुज्झकूडं सुज्जुत्तरवडिंसगं, रुइल्लं रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पभं रुइल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइल्ललेसं रुइल्लज्झयं रुइल्लसिंगं रुइल्लसिट्ठ रुइल्लकूडं रुइल्लुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण नव सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। -सम.सम.९, सु.१७ १०. जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्म रम्मगं रमणिज्जं मंगलावत्तं बंभलोगवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। -सम. सम. १०, सु. २२ ११. जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पभं बंभकंतं बंभवण्णं बंभलेसं बंभज्झयं बंभसिंग बंभसिटुं बंभकूड बंभुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण एक्कारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। -सम.सम.११,सु.१३ ५. वात, सुवात, वातावर्त, वातप्रभ, वातकान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृंग, वातसृष्ट, वातकूट और वातोत्तरावतंसक तथा सूर, सुसूर, सूरावत, सूरप्रभ, सूरकान्त, सूरवर्ण, सूरलेश्य, सूरध्वज, सूरशृंग, सूरसृष्ट, सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम की कही गई है। ६. स्वयंभू, स्वयंभूरमण, घोष, सुघोष, महाघोष, कृष्टिघोष, तथा वीर, सुवीर, वीरगत, वीरश्रेणिक, वीरावत, वीरप्रभ, वीरकान्त, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरभंग, वीरसृष्ट, वीरकूट और वीरोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति छह सागरोपम की कही गई है। ७. सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की कही गई है। ८. अर्चि, अर्चिमाली, वैरोचन, प्रभंकर, चन्द्राभ, सूराभ, सुप्रतिष्ठाभ, अग्न्यर्चाभ, रिष्टाभ, अरुणाभ और अरुणोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपम की कही गई है। ९. पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्ष्मावत, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकान्त, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्मध्वज, पक्ष्मशृंग, पक्ष्मसृष्ट, मक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक तथा सूर्य, सुसूर्य, सूर्यावर्त, सूर्यप्रभ, सूर्यकान्त, सूर्यवर्ण, सूर्यलेश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृंग, सूर्यसृष्ट, सूर्यकूट, सूर्योत्तरावतंसक तथा रुचिर, रुचिरावत, रुचिरप्रभ, रुचिरकान्त, रुचिरवर्ण, रुचिरलेश्य, रुचिरध्वज, रुचिरशृंग, रुचिरसृष्ट, रुचिरकूट और रुचिरोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति नौ सागरोपम की कही गई है। १०. घोष, सुघोष, महाघोष, नंदीघोष, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक्रमणीक,मंगलावत और ब्रह्मलोकावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की कही गई है। ११. ब्रह्म, सुब्रह्म, ब्रह्मावर्त्त, ब्रह्मप्रभ, ब्रह्मकान्त, ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मलेश्य, ब्रह्मध्वज, ब्रह्मभंग, ब्रह्मसष्ट, ब्रह्मकट और ब्रह्मोत्तरावतंसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागरोपम की कही गई है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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