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________________ स्थिति अध्ययन उ. गोयमा !जहण्णेण एक्कतीसं सागरोवमाई, उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइं। प. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय अपज्जत्तय देवाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? उ. गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। ३४३ उ. गौतम ! जघन्य इकतीस सागरोपम की, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की। प्र. भंते ! विजय, वैजयन्त,जयन्त और अपराजित विमानों के अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उ. गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट भी अन्त मुहूर्त की। प्र. भंते ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों के पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम इकतीस सागरोपम की, प. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय पज्जत्तय देवाणं भंते !केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? उ. गोयमा ! जहण्णेण एक्कतीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेण तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? उ. गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। प. सव्वट्ठसिद्धग अपज्जत्तय देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? उ. गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण विअंतोमुहुत्तं। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की। प्र. भंते ! सर्वार्थसिद्ध-विमानवासी देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उ. गौतम ! अजघन्य अनुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस सागरोपम की। प्र. भंते ! सर्वार्थसिद्ध-विमानवासी अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उ. गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की। प्र. भंते ! सर्वार्थसिद्ध-विमानवासी पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? उ. गौतम ! अजघन्य अनुत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की कही गई है। ११७. विशिष्ट विमानवासी देवों की स्थिति १. सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव, मनु, मानुसोत्तर और लोकहित विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की कही गई है। प. सव्वट्ठसिद्धग पज्जत्तय देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? उ. गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई ठिई पण्णत्ता। -पण्ण.प.४,ए४३६-४३७ ११७. विसिट्ठविमाणावासीणं देवाणं ठिई१. जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंतं भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण एगं सागरोवमं ठिई पण्णत्ता। -सम. सम.१,सु.४३ २. जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवण्णं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसिणं देवाणं उक्कोसेण दो सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। -सम. सम.२, सु. २० ३. जे देवा आभंकर, पभंकर, आभंकर-पभंकर, चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदसिंग चंदसिटुं चंदकूडं चंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेण तिण्णि सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। -सम.सम.३,सु.२१ २. शुभ, शुभकान्त, शुभवर्ण, सुभगन्ध, शुभलेश्य, शुभस्पर्श और सौधर्मावतसंक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की कही गई है। ३. आभंकर, प्रभंकर, आभंकर-प्रभंकर, चन्द्र, चद्रावत, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रशृंग, चन्द्रसृष्ट, चन्द्रकूट और चन्द्रोत्तरावंतसक विमानों में देवरूप में उत्पन्न होने वाले देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की कही गई है। १. (क) उत्त.अ.३६,गा.२४३ (ख) अणु.सु.३९१ (९) (ग) सम.सम.३१,सु.१०(ज) (घ) सम.सम.३३,सु.१०(उ) २. (क) उत्त.अ.३६,गा.२४४ (ख) अणु.सु.३९१(९) (ग) सम.सम.३३,सु.११ (घ) जीवा. पडि.३,सु.२०४ (ङ) सम. सु.१५०(२)
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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