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________________ जीव अध्ययन दं. २. असुरकुमारा दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा १. इट्ठा सद्दा, २. इट्ठा रूवा जाव १० इट्ठे उद्याण-कम्म-बल-वीरिय- पुरिसकारपरकमे । दं. ३-११. एवं जाव धणियकुमारा । ई. १२. पुढविकाइया छठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरति, तं जहा २. इट्ठाणिट्ठा गइ, ४. इट्ठाणिट्ठे लावण्णे, १. इट्ठाणिट्ठा फासा, ३. इट्ठाणिट्ठा ठिई, ५. इट्ठाणिट्ठे जसोकिती, ६. इट्ठाणिट्ठे उट्ठाणे जाव परक्कमे । दं. १३-१६. एवं जाव वणस्सइकाइया । दं. १७. बेइंदिया सत्तट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा १. इट्ठाणिट्ठा रसा, सेसं जहा एगिंदियाणं । दं. १८. तेइंदिया णं अट्ठट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरति, तं जहा १. इट्ठाणिट्ठा गंधा, सेसं जहा बेइन्द्रियाणं । वं. १९. चरिंदिया नवट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा इट्ठाणिट्ठा रूचा, सेस जहा तेइदिया। दं. २०. पंचेदियतिरिक्खजोणिया दसट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरति, तं जहा १. इट्ठाणिट्ठा सद्दा जाव १० इट्ठाणिट्ठे उट्ठाणकम्म-बल-वीरिय पुरिसक्कारपरक्कमे वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया दं. २१. एवं मणुस्सा वि । दं. २२-२४ जहा - विया. स. १४, उ. ५, सु. १०-२० असुरकुमारा । ११६. जीवाणं जीवत्तस्स कार्याट्ठिई परूवणं प. जीवे णं भंते ! जीवे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! सव्वद्धं ।" -पण्ण. प. १८, सु. १२६० ११७. छव्हिविवक्खया संसारीजीवाणं कार्यट्टिई पलवणं प. पुढविकाइएणं भंते! पुढविकाइएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? उ. गोयमा ! सब्ब। १. जीवा. पडि. ३, सु. १०१ २१९ दं. २. असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा १. इष्ट- शब्द, २. इष्ट रूप यावत् १० इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम । दं. ३-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त (स्थान) जानना चाहिए। दं. १२. पृथ्वीकायिक जीव छह स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा १. इष्ट अनिष्ट स्पर्श ३. इष्टानिष्ट स्थिति, ५. इष्टानिष्ट यश कीर्ति, २. इष्ट-अनिष्ट गति, ४. इष्टानिष्ट लावण्य, ६. इष्टानिष्ट उत्थान यावत् पराक्रम । दं. १३-१६. इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों पर्यन्त (छह स्थान) जानना चाहिए। दं. १७. द्वीन्द्रिय जीव सात स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा १. इष्टानिष्ट रस और शेष छह स्थान पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए। द. १८. श्रीन्द्रिय जीव आठ स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा १. इष्टानिष्ट गंध और शेष सात स्थान द्वीन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए। द. १९. चतुरिन्द्रिय जीव नौ स्थानों का अनुभव करते रहते हैं। यथा इष्टानिष्ट रूप और शेष आठ स्थान त्रीन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए। दं. २०. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, यथा इष्टानिष्ट शब्द यावत् १० इष्टानिष्ट उत्थान कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार पराक्रम । दं. २१. इसी प्रकार मनुष्यों में (१० स्थान) कहने चाहिए। दं. २२- २४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन असुरकुमारों के समान करना चाहिए। ११६. जीवों के जीवत्व की कार्यस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते! जीव कितने काल तक जीव रूप में रहता है ? उ. गौतम ! ( वह) सदा काल रहता है। ११७ षविध विवक्षा से संसारी जीवों की कायस्थिति का प्ररूपण प्र. भंते! पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक के रूप में कितने काल तक रहता है ? उ. गौतम ! सर्वकाल रहता है।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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