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________________ २१८ - द्रव्यानुयोग-(१) उ. गोयमा ! अत्थेगईए वीईवएज्जा, अत्थेगईए नो उ. गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है। वीईवएज्जा। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है किपंचेंदियतिरिक्खजोणिए अत्थेगइए वीईवएज्जा, 'कोई पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जा सकता है और कोई नहीं - अत्थेगइए नो वीईवएज्जा? जा सकता है।' उ. गोयमा ! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, उ. गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव दो प्रकार के कहे तंजहा गए हैं, यथा१. विग्गहगइसमावन्नगा य, १. विग्रहगति समापन्नक, २. अविग्गहगइतसमावन्नगा य। २. अविग्रहगति समापन्नक। विग्गहगइसमावन्नए जहेव नेरइए जाव नो खलु तत्थ विग्रहगति समापन्नक पञ्चेन्द्रिय तिर्यन्चयोनिकों का कथन सत्थं कमइ। नैरयिकों के समान उन पर शस्त्र असर नहीं करता पर्यन्त कहना चाहिए। अविग्गहगइसमावन्नगा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया अविग्रहगति समापन्नक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार दुविहा पन्नत्ता,तं जहा के कहे गए हैं, यथा१. इड्ढिप्पत्ता य, २. अणिड्ढिप्पत्ता य। १. ऋद्धिप्राप्त २. अनृद्धिप्राप्त (ऋद्धिअप्राप्त) १. तत्थ णंजे से इड्ढिप्पत्ते पंचेंदियतिरिक्खजोणिए से १. जो ऋद्धिप्राप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं कोई अग्नि के मध्य में होकर जा सकता है और कोई वीईवएज्जा,अत्थेगईए नो वीईवएज्जा। नहीं जा सकता है। . प. भंते !जे णं वीईवएज्जा सेणं तत्थ झियाएज्जा? प्र. भंते ! जो अग्नि में होकर जाता है क्या वह जल जाता है? उ. गोयमा ! णो इणठे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि उस पर अग्नि रूप शस्त्र असर नहीं करता। २. तत्थणंजे से अणिड्ढिप्पत्ते पंचेंदियतिरिक्खजोणिए २. जो ऋद्धि अप्राप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव हैं से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं उनमें से कोई अग्नि में होकर जा सकता है कोई नहीं वीईवएज्जा,अत्थेगईए नो वीईवएज्जा। जा सकता है। प. भंते !जेणं वीईवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? प्र. भंते ! जो अग्नि में से होकर जा सकता है, क्या वह जल जाता है? उ. हंता,गोयमा ! झियाएज्जा। उ. हां गौतम ! वह जल जाता है। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'अत्थेगइए वीईवएज्जा अत्थेगईए नो वीईवएज्जा'। 'कोई अग्नि में से होकर जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है।' दं.२१.एवं मणुस्से वि। दं.२१. इसी प्रकार मनुष्य के लिए भी कहना चाहिए। दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा, दं. २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का - असुरकुमारे। -विया. स. १४, उ.५, सु. १-९ कथन असुरकुमारों के समान करना चाहिए।' ११५. चउवीसदंडएसु इट्ठाणिट्ठ पच्चणुभवमाण ठाणाणं संखा ११५. चौबीसदंडकों में इष्टानिष्टों के अनुभव स्थानों की संख्या परूवणं का प्ररूपणदं. १. नेरइया दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरति, दं.१. नैरयिक जीव इन दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं, तं जहा१.अणिट्ठा सद्दा, २.अणिट्ठा रूवा, ३.अणिट्ठा गंधा, १.अनिष्ट शब्द २. अनिष्ट रूप ३. अनिष्ट गन्ध, ४. अणिट्ठा रसा, ५.अणिट्ठा फासा, ६. अणिट्ठा गई, ४. अनिष्ट रस, ५. अनिष्ट स्पर्श ६. अनिष्ट गति, ७. अणिट्ठा ठिई, ८. अणिठे लावण्णे, ९. अणिठे ७.अनिष्ट स्थिति, ८. अनिष्ट लावण्य, ९. अनिष्ट यशः कीर्ति, जसोकित्ती, १०.अणिठे उट्ठाण-कम्म-बल-वीरिय-पुरिसक्कार परक्कमे। १०. अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम। यथा
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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