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________________ जीव अध्ययन से तेणट्ठे गोयमा ! एवं बुच्चइ 'अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए नो वीईवएज्जा ।' प. दं. २. असुरकुमारे णं भंते ! अगणिकायस्स ममझेणं वीईयएज्जा ? उ. गोयमा ! अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए नो बीईवएज्जा । प से केणट्ठणं भंते! एवं वुच्चइ 'अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए नो वीईवएज्जा ?' उ. गोयमा असुरकुमारा दुबिहा पन्नत्ता, तं जहा १. विग्गहगइसमावन्नगा य, २. अविग्गहगइसमावन्नगा य । १. तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं बीईवएज्जा। प. भंते! से णं तत्थ झियाएज्जा ? उ. गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । २. तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं अत्थेगइए अगणिकायरस मज्जामण वीएज्जा, अत्थेगइए नो वीईवएज्जा । प. भंते! जेणं वीईवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ? उ. गोयमा ! नो इण समझे, नो खलु तत्थ सत्यं कमइ । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'अत्थेगईए वीईवएज्जा, अत्थेगईए नो वीईवएज्जा ?' ६. ३-११. एवं जाव धणियकुमारे, दं. १२-१६. एगिंदिया जहा नेरइया, प. दं. १७. बेईदिया णं भंते! अगणिकायरस मज्झमज्ज्ञेणं वीएज्जा ? उ. गोयमा ! जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि, नवरं प. भंते! जेणं वीईवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ? उ. हंता, गोयमा ! झियाएज्जा । सेसं तं चैव । दं. १८-१९. एवं इंदिए चउरिदिए थि। प. दं. २०. पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकायरस मज्झंमज्झेणं वीईवएज्जा ? २१७ इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि 'कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है।' प्र. दं. २. भंते ! असुरकुमार देव अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकता है ? उ. गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है। प्र. भंते! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'कोई असुरकुमार अग्नि के मध्य में होकर जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है ?" उ. गौतम ! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. विग्रहगति समापन्नक, २. अविग्रहगति समापन्नक । १. उनमें से जो विग्रहगति समापत्रक असुरकुमार हैं, वे अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकते हैं, प्र. भंते ! क्या वे अग्नि से जल जाते हैं ? उ. 'गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उन पर अग्नि रूप शस्त्र असर नहीं करता । २. उनमें से जो अविग्रहगति समापन्नक असुरकुमार हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में होकर जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है। प्र. भंते! जो (असुरकुमार) अग्नि के मध्य में होकर जाता है तो क्या वह जल जाता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उन पर अग्नि रूप शस्त्र का असर नहीं होता। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'कोई असुरकुमार जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है।' द. ३११. इसी प्रकार ( नागकुमार से) स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए। दं. १२-१६. (पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त) एकेन्द्रिय के लिए नैरयिकों के समान कहना चाहिए। प्र. दं. १७. भंते ! द्वीन्द्रिय जीव अग्निकाय के मध्य में से होकर जा सकते हैं ? उ. गौतम ! जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा उसी प्रकार द्वीन्द्रियों के लिए भी कहना चाहिए, विशेष प्र. भंते ! जो द्वीन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जाते हैं, क्या वे जल जाते हैं ? उ. हाँ, गौतम ! वे जल जाते हैं। शेष सभी पूर्ववत जानना चाहिए। द. १८-१९. इसी प्रकार श्रीन्द्रिय चरिन्द्रिय के लिए भी जानना चाहिए। प्र. दं. २०. भंते ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव अग्नि के मध्य में से होकर जा सकता है ?
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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