SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ द्रव्यानुयोग-(१) उ. हता, गोयमा ! णेरइया णं अणंतराहारा, तओ निव्वत्तणया, तओ परियाइयणया, तओ परिणामणया तओ परियारणया तओ पच्छा विउव्वणया। प. दं. २. असुरकुमाराणं भंते ! अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया, तओ परियाइयणया, तओ परिणामणया तओ विउव्वणया तओ पच्छा परियारणया? उ. गोयमा ! असुरकुमारा अणंतराहारा तओ णिव्वत्तया जाव तओ पच्छा परियारणया। दं.३-११.एवं जाव थणियकुमारा। प. दं. १२. पुढविकाइया णं भंते ! अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया, तओ परियाइयणया तओ परिणामणया , तओ परियारणया,तओ विउव्वणया? उ. हंता, गोयमा ! पुढविकाइया परियारणया अणंतराहारा जावणो चेवणं विउव्वणया। दं.१३-२१.एवं जाव चउरिंदिया। णवर-वाउक्काइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहाणेरइया। दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। -पण्ण. प.३४, सु. २०३३-२०३७ ११४. चउवीसदंडयाणं अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं गमण परूवणंप. द. १. नेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं - वीईवएज्जा ? उ. गोयमा ! अत्थेगइए वीईवएज्जा, अत्थेगइए नो वीईवएज्जा। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए वीईवएज्जा,अत्थेगइए नो वीईवएज्जा?' उ. गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता,तं जहा १. विग्गहगइसमादन्नगा य, २. अविग्गहगइसमावन्नगा य। १. तत्थ णं जे ते विग्गहगइसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झंज्झेणं वीईवएज्जा। प. भंते ! से णं तत्थ झियाएज्जा? उ. हां, गौतम ! नैरयिक अनन्तराहारक होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है, तत्पश्चात् पर्यादानता और परिणामना होती है, पश्चात् वे परिचारणा करते हैं और तब वे विकुर्वणा करते हैं। प्र. दं.२. भंते ! क्या असुरकुमार अनन्तराहारक होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है, फिर वे क्रमशः पर्यादान और परिणामना करते हैं, तत्पश्चात् विकुर्वणा और फिर परिचारणा करते हैं? उ. हां गौतम ! असुरकुमार अनन्तराहारी होते हैं फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है यावत् उसके बाद वे परिचारणा करते हैं। दं.३-११. इसी प्रकार स्तनितकुमारों पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. दं. १२. भंते ! क्या पृथ्वीकायिक अनन्तराहारक होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है तत्पश्चात् पर्यादानता, परिणामना फिर परिचारणा और उसके बाद क्या विकुर्वणा करते हैं? उ. हां, गौतम ! पृथ्वीकायिक अनन्तराहारक होते हैं यावत् परिचारणा करते हैं किन्तु विकुर्वणा नहीं करते हैं। दं.१३-२१. इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष-वायुकायिक, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों के लिए अनन्तराहारक आदि का कथन नैरयिकों के समान करना चाहिए। दं. २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन असुरकुमारों के समान करना चाहिए। ११४. चौबीसदंडकों का अग्निकाय के मध्य में होकर गमन का प्ररूपणप्र. दं.१.भंते ! नैरयिक जीव अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकता है? उ. गौतम ! कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि___'कोई नैरयिक जा सकता है और कोई नहीं जा सकता है?' उ. गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १. विग्रहगति समापनक, २. अविग्रहगति समापन्नका १. उनमें से जो विग्रहगति समापन्नक नैरयिक हैं, वे अग्निकाय के मध्य में होकर जा सकते हैं। प्र. भंते ! क्या (वे अग्नि के मध्य में से होकर जाते हुए) अग्नि से जल जाते हैं? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि उन पर अग्निरूप शस्त्र नहीं चल सकता। २. उनमें से जो अविग्रहगतिसमापन्नक नैरयिक हैं वे अग्निकाय के मध्य में होकर नहीं जा सकते, क्योंकि नरक में बादर अग्नि नहीं होती) उ. गोयमा ! णो इणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। २. तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मज्झज्झेणं णो वीईवएज्जा।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy