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________________ २०५ जीव अध्ययन (९) जोगदारंप. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी? उ. गोयमा ! तिण्णि वि। प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जाव मणजोए वट्टमाणा किं कोहोवउत्ता जावलोभोवउत्ता? उ. गोयमा ! सत्तावीसं भंगा भाणियव्या। एवं वइजोए, एवं कायजोए। (९) योग द्वारप्र. भंते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में रहने वाले नारक जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं या काययोगी हैं ? उ. गौतम ! वे तीनों योगों वाले हैं। प्र. भंते ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में यावत् मनोयोग में प्रवर्त्तमान नारक जीव क्या क्रोधोपयुक्त हैं यावत् लोभोपयुक हैं ? उ. गौतम ! क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंग कहने चाहिए। इस प्रकार वचनयोगी और काययोगी के भी २७ भंग कहने चाहिए। (१०) उपयोग द्वारप्र. भंते ! इस रलप्रभा पृथ्वी के नारक जीव क्या साकारोपयोग से युक्त हैं या अनाकारोपयोग से युक्त हैं ? उ. गौतम ! वे साकारोपयोग से भी युक्त हैं और अनाकारोपयोग से भी युक्त हैं। प्र. भंते ! इस रलप्रभा पृथ्वी में यावत् साकारोपयोग में प्रवर्तमान नारक क्या क्रोधोपयुक्त हैं यावत् लोभोपयुक्त हैं ? (१०) उवओगदारंप. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? उ. गोयमा ! सागारोवउत्ता वि, अणागारोवउत्ता वि। प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जाव सागारोवओगे वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता जाव लोभोवउत्ता? उ. गोयमा ! सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा। एवं अणागारोवउत्ते वि सत्तावीसंभंगा। एवं सत्त पुढवीओणेयव्याओ। णवरं-णाणत्तं लेसासु-गाहाकाऊ य दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए। पंचमीयाए मीसा कण्हा तत्तो परम कण्हा ॥१॥ प. दं. २-११. चउसट्ठीए णं भंते! असुरकुमारा वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं केवइया ठिइठाणा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! असंखेज्जा ठिइठाणा पण्णत्ता, तं जहा- . जहन्निया ठिई जहा नेरइया तहा, उ. गौतम ! क्रोधोपयुक्त आदि २७ भंग कहने चाहिए। इस प्रकार अनाकारोपयोग से युक्त में भी सत्ताईस भंग कहने चाहिए। इसी प्रकार सातों नरक पृथ्वियों के लिए जानना चाहिए। विशेष-लेश्याओं में अंतर है-गाथार्थ पहली और दूसरी नरक पृथ्वी में कापोतलेश्या है, तीसरी नरक पृथ्वी में मिथ (कापोत और नील) है, चौथी में नील लेश्या है पांचवीं में मिश्र (नील और कृष्ण) हैं छट्ठी में कृष्ण लेश्या है और सातवीं में परम कृष्ण लेश्या होती है। प्र. दं.२-११. भंते ! चौंसठ लाख असुरकुमारावासों में से प्रत्येक असरकमारावास में रहने वाले असरकमारों के कितने स्थिति स्थान कहे गए हैं? उ. गौतम ! उनके असंख्यात स्थिति स्थान कहे गये हैं, यथा जघन्य स्थिति स्थान एक समय अधिक जघन्य स्थिति स्थान आदि सब वर्णन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विशेष-इनमें सत्ताईस भंग प्रतिलोम (उल्टे) समझने चाहिए, यथा१. सभी असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं, २. अथवा बहुत से लोभोपयुक्त होते हैं और एक मायोपयुक्त होता है, ३. अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और बहुत से मायोपयुक्त होते हैं। इसी आलापक के अनुसार स्तनितकुमारों पर्यन्त (क्रोधोपयुक्तादि भंग) जानने चाहिए। विशेष-(लेश्या आदि में) जो जो भिन्नता है वह जाननी चाहिए। प्र. दं. १३-१६. भंते ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात गाव आवासों में से एक-एक आवास में रहने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थिति स्थान कहे गये हैं ? णवर-पडिलोमा भंगा भाणियव्वा, तं जहा- . १.सव्वे वि ताव होज्जा लोभोवउत्ता, २.अहवा लोभोवउत्ता य मायोवउत्ते य, ३.अहवा लोभोवउत्ता यमायोवउत्ता य, एएणं गमेणं नेयव्वं जाव थणियकुमारा, णवरं-णाणत्तं भाणियव्वं। प. दं.१३-१६. असंखेज्जेसु णं भंते ! पुढविकाइया वाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयाणं केवइया ठिइठाणा पण्णत्ता?
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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