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________________ २०६ द्रव्यानुयोग-(१) उ. गोयमा! असंखेज्जा ठिइठाणा पण्णत्ता,तं जहा उ. गौतम ! उनके असंख्यात स्थिति स्थान कहे गये हैं, यथाजहन्निया ठिई जाव तप्पाउग्गुक्कोसिया ठिई। जघन्य स्थिति से लेकर उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त असंख्यात स्थिति स्थान होते हैं। प. असंखेज्जेसु णं भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु प्र. भंते ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में एगमेगंसि पुढविकाइयावाससंसि जहन्नठिईए से एक-एक आवास में रहने वाले और जघन्य स्थिति वाले वट्टमाणा पुढविकाइया किं कोहोवउत्ता जाव पृथ्वीकायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं यावत् लोभोपयुक्त हैं ? लोभोवउत्ता? उ. गोयमा ! कोहोवउत्ता वि, माणोवउत्ता वि, मायोवउत्ता . उ. गौतम ! क्रोधोपयुक्त भी हैं, मानोपयुक्त भी हैं, मायोपयुक्त वि, लोभोवउत्ता वि। भी हैं और लोभोपयुक्त भी हैं। एवं पुढविक्काइयाणं सव्वेसु ठाणेसु अभंगयं, इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थान अभंगक (विकल्प रहित) हैं। णवर-तेउलेस्साए असीति भंगा। विशेष-तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहने चाहिए। एवं आउक्काइया वि। इसी प्रकार अकाय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। तेउक्काय-वाउक्काइयाणं सव्वेसु वि ठाणेसु अभंगयं। तेजस्काय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक है। वणस्सइकाइया जहा पुढविकाइया। वनस्पतिकायिकों के लिए पृथ्वीकायिक के समान समझना चाहिए। दं. १७-१९. बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिंदियाणं-जेहिं दं. १७-१९. जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग ठाणेहिं नेरइयाणं असीइ भंगा तेहिं ठाणेहिं असीइ चेव। कहे गये हैं उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए। णवरं-अब्भहिया सम्मत्ते, आभिणिबोहियनाणे विशेष-(इतनी बात नारक जीवों से अधिक है कि) सुयनाणे यएएहिं असीइ भंगा, सम्यग्दर्शन, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान इन में अस्सी भंग होते हैं, जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं सत्तावीसं भंगा तेसु ठाणेस जिन स्थानों में नारक जीवों के सत्ताईस भंग कहे हैं, उन सव्वेसुभंगयं। सभी स्थानों में अभंगक (विकल्प रहित) हैं। दं. २०. पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा दं.२०.जैसा नैरयिक के विषय में कहा, वैसा ही पंचेन्द्रिय भाणियव्वा। तिर्यञ्चयोनिक जीवों के भंगों के विषय में भी कहना चाहिए। णवर-जेहिं सत्तावीसं भंगा तेहिं अभंगयं कायव्वं । विशेष-जिन-जिन स्थानों में नारक जीवों के सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन-उन स्थानों में यहां अभंगक कहना चाहिए। जत्थ असीइ तत्थ असीतिं चेव। जिन स्थानों में नारकों के अस्सी भंग कहे हैं उसी प्रकार इनके भी अस्सी भंग कहने चाहिए। दं.२१.जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइ भंगा, तेहिं द.२१. नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में अस्सी भंग ठाणेहिं मणुस्साणं वि असीइ भंगा भाणियव्वा। कहे गए हैं, उन-उन स्थानों में मनुष्यों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए। जेसु ठाणेसु सत्तावीसा भंगा तेसु ठाणेसु सव्वेसु नारक जीवों के जिन-जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गए अभंगयं, हैं, वहां मनुष्यों में अभंगक कहना चाहिए। णवर-मणुस्साणं अब्भहियं-जहन्नियाए ठिईए विशेष-मनुष्यों में यह अधिकता है कि जघन्य स्थिति और आहारए य असीति भंगा। आहारक शरीर में अस्सी भंग होते हैं, दं. २२-२४. वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा दं.२२-२४. वाणव्यन्तर,ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का भवणवासी, कथन भवनवासी देवों के समान समझना चाहिए। णवर-णाणत्तं जाणियव्वं जं जस्स जावं अणुत्तरा। विशेष-अनुत्तरविमानों में जिसकी जो भिन्नता हो वह जान -विया. स. १, उ.५, सु.६-३६ लेना चाहिए। १०१. चउवीसदंडएसु अज्झवसाणाणं संखा पसत्थापसत्थत्त य १०१. चौबीस दंडकों में अध्यवसायों की संख्या और परूवणं अप्रशस्ताप्रशस्तत्व का प्ररूपणप. दं. १. णेरइयाणं भंते ! केवइया अज्झवसाणा प्र. दं. १. भंते ! नारकों के कितने अध्यवसाय (आत्म पण्णत्ता? परिणाम) कहे गए हैं?
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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