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________________ जीव अध्ययन १७९ १. तत्थ णं जे ते असंसारसमावन्नगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णंनो आयारंभा जाव अणारंभा २. तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा १. संजया य २. असंजया। १. तत्थ णं जेते संजया ते दुविहा पण्णत्ता,तं जहा १.पमत्तसंजयाय २.अप्पमत्तसंजया य १.तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा जाव अणारंभा। २. तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया ते सुभं जोगं पडुच्च नो आयारंभा जाव अणारंभा। असुभं जोगं पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। तत्थ णं जे ते असंजया ते अविरई पडुच्च आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि जाव नो अणारंभा, अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा जाव अणारंभा।' प. दं. १. नेरइया णं भंते ! किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणारंभा? उ. गोयमा ! अविरई पडुच्च नेरइया आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। दं. २-२०. एवं जाव असुरकुमारा वि जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया। दं.२१.मणुस्सा जहा जीवा। १. उनमें से जो जीव असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध (मुक्त) हैं और सिद्ध भगवान् न तो आत्मारम्भी हैं यावत् अनारम्भी हैं। उनमें से जो संसारसमापन्नक जीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. संयत २. असंयत। १. उनमें से जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा१. प्रमत्तसंयत २. अप्रमत्तसंयत। १. उनमें से जो अप्रमत्तसंयत हैं वे आत्मारम्भी नहीं हैं, यावत् अनारम्भी हैं। २. उनमें से जो प्रमत्तसंयत हैं, वे शुभ योग की अपेक्षा आत्मारम्भी नहीं हैं यावत् अनारम्भी हैं। अशुभयोग की अपेक्षा वे आत्मारम्भी हैं यावत् अनारम्भी नहीं हैं। उनमें से जो असंयत हैं, वे अविरति की अपेक्षा आत्मारम्भी हैं यावत् अनारम्भी नहीं हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'कितने ही जीव आत्मारम्भी हैं यावत् अनारम्भी नहीं हैं, कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं यावत् अनारम्भी हैं। प्र. दं.१. भंते ! नैरयिक जीव क्या आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं या अनारम्भी हैं ? उ. गौतम ! अविरति की अपेक्षा 'नैरयिक जीव आत्मारम्भी हैं यावत् अनारम्भी नहीं हैं। द. २-२०. इसी प्रकार असुरकुमारों से पंचेन्द्रियतिर्यञ्च योनिक पर्यन्त जानना चाहिए। दं. २१. मनुष्यों का कथन सामान्य जीवों की तरह करना चाहिए। विशेष-सिद्धों को छोड़कर कहना चाहिए। द. २२-२४. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन नैरयिकों के समान करना चाहिए। ८४. जीव-चौबीस दंडकों का अधिकरणी आदि पदों द्वारा प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव अधिकरणी है या अधिकरण है? उ. गौतम ! जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है। प्र. भंते ! किस कारण से यह कहा जाता है कि जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है ? उ. गौतम ! अवरिति की अपेक्षा (जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है) इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि जीव अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है। प्र. दं. १. भंते ! नैरयिक जीव क्या अधिकरणी है या अधिकरण है? उ. गौतम ! वह अधिकरणी भी है और अधिकरण भी है। जिस प्रकार जीव (सामान्य) के विषय में कहा उसी प्रकार नैरयिक के विषय में भी कहना चाहिए। णवरं-सिद्धविरहिया भाणियव्वा। दं. २२-२४. वाणमंतरा-जोइसिया-वेमाणिया जहा नेरइया। -विया. स. १, उ.१, सु.७८ ८४. जीव-चउवीसदंडगाणं अहिगरणाइ पदेहिं परूवणं प. जीवेणं भंते ! किं अधिकरणी, अधिकरणं? उ. गोयमा ! जीवे अधिकरणी वि,अधिकरणं वि। प. सेकेणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ "जीवे अधिकरणी वि,अधिकरणं वि?" उ. गोयमा ! अविरई पडुच्च। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ "जीवे अधिकरणी वि,अधिकरणं वि।" प. दं.१.नेरइएणं भंते ! किं अधिकरणी अधिकरणं? उ. गोयमा ! अधिकरणी वि, अधिकरणं वि। एवं जहेव जीवे तहेव नेरइए वि।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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