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________________ ( १७८ ८१. जीव-चउवीसदंडएसुपच्चक्खाणाइ निव्वत्तियायुत्त परूवणं- प. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया, अप्पच्चक्खाण-निव्वत्तियाउया, पच्चक्वाणापच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया? उ. गोयमा ! जीवा य वेमाणिया य पच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया, तिण्णि वि। अवसेसा अपच्चक्खाणनिव्यत्तियाउया। -विया. स.६, उ.४, सु. २४ ८२. जीव-चउवीसदंडएसु सुत्त-जागरा संवुडा-संवुडाइ यपरूवणं द्रव्यानुयोग-(१) ८१. जीव चौबीसदंडकों में प्रत्याख्यानादि से निर्वर्तित आयुत्व का प्ररूपणप्र. भंते ! जीव प्रत्याख्यान से निवर्तित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से निवर्तित आयुष्य वाले हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से निवर्तित आयुष्य वाले हैं ? उ. गौतम ! जीव और वैमानिक देव प्रत्याख्यान से निवर्तित आयु वाले आदि तीनों विकल्पों से युक्त हैं। शेष सभी जीव अप्रत्याख्यान से निवर्तित आयुष्य वाले हैं। प. जीवाणं भंते ! किं सुत्ता,जागरा, सुत्त-जागरा? उ. गोयमा !जीवा सुत्ता वि,जागरा वि, सुत्तजागरा वि। प. द.१.नेरइयाणं भंते ! किं सुत्ता,जागरा, सुत्तजागरा? उ. गोयमा ! नेरइया सुत्ता, नो जागरा, नो सुत्तजागरा। दं.२-१९ एवं जाव चउरिदिया। प. दं.२०. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! किं सुत्ता, जागरा, सुत्तजागरा? उ. गोयमा ! सुत्ता, नो जागरा, सुत्तजागरा वि। दं.२१. मणुस्सा जहा जीवा। दं.२२-२४ वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया। _ -विया. स. १६, उ.६, सु.३-८ प. जीवाणं भंते ! किं संवुडा, असंवुडा, संवुडासंवुडा? उ. गोयमा !जीवा संवुडा वि, असंवुडा वि, संवुडासंवुडा वि। ८२. जीव-चौबीस दंडकों में सुप्त-जागृत और संवृत-असंवृत आदि का प्ररूपणप्र. भंते ! जीव सुप्त हैं, जागृत हैं या सुप्त-जागृत हैं ? उ. गौतम ! जीव सुप्त भी हैं, जागृत भी हैं और सुप्तजागृत भी हैं। प्र. द.१. भंते ! नैरयिक सुप्त हैं, जागृत हैं या सुप्त-जागृत हैं ? उ. गौतम ! नैरयिक सुप्त हैं किन्तु जागृत नहीं हैं और सुप्तजागृत भी नहीं है। दं.२-१९ इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों पर्यन्त जीवों के लिए कहना चाहिए। प्र. द.२-२०. भंते ! क्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव सुप्त हैं, जागृत हैं या सुप्त जागृत हैं ? उ. गौतम ! वे सुप्त हैं, जागृत नहीं हैं, सुप्त-जागृत हैं। दं.२१. मनुष्यों का कथन सामान्य जीवों के समान करना चाहिए। दं.२२-२४ वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिकों के समान (सुप्त) जानना चाहिए। प्र. भंते ! जीव संवृत हैं असंवृत हैं या संवृतासंवृत हैं ? उ. गौतम ! जीव संवृत भी हैं, असंवृत भी हैं और संवृतासंवृत भी हैं। जिस प्रकार सुप्त जीवों के दण्डक (आलापक) कहे उसी प्रकार इनका भी आलापक कहना चाहिए। ८३. जीव-चौबीस दंडकों में आत्मारंभादि का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं, तदुभयारम्भी हैं या अनारम्भी हैं? उ. गौतम ! कितने ही जीव आत्मारम्भी हैं, परारम्भी हैं और तदुभयारम्भी भी हैं, किन्तु अनारम्भी नहीं हैं। कितने ही जीव आत्मारंभी नहीं हैं, परारम्भी भी नहीं हैं और तदुभयारम्भी भी नहीं हैं किन्तु अनारम्भी हैं। प्र भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'कितने ही जीव आत्मारम्भी हैं यावत् अनारम्भी नहीं है तथा कितने ही जीव आत्मारम्भी नहीं हैं यावत् अनारम्भी हैं। उ. गौतम! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा १.संसारसमापन्नक २. असंसारसमापन्नक। एवं जहेव सुत्ताणं दंडओ तहेव भाणियब्वो। -विया. स.१६, उ.६.सु.१० ८३. जीव-चउवीसदंडएसु आयारंभाइ परूवणंप. जीवाणं भंते ! किं आयारंभा, परारंभा, तदुभयारंभा, अणारंभा? उ. गोयमा ! अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा, अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा, नो परारंभा, नो तदुभयारंभा,अणारंभा। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ 'अत्थेगइया जीवा आयारंभा वि जाव नो अणारंभा। अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा जाव अणारंभा।' उ. गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा १.संसारसमावनगा य। २.असंसारसमावन्नगा य।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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