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________________ जीव अध्ययन १७७ "नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि? उ. गोयमा ! जेसि णं णेरइयाणं अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए-पुरिसक्कार परकम्मे। ते णं नेरइया लद्धिवीरिएण वि सवीरिया, करणवीरिएण विसवीरिया, जेसि णं नेरइयाणं नथि उठाणे जाव पुरिसक्कार परकम्मे ते णं नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं अवीरिया। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"नेरइया लद्धिवीरिएणं सवीरिया, करणवीरिएणं सवीरिया वि, अवीरिया वि।" दं. २-२० जहा नेरइया एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया। दं.२१ मणुस्सा जहा ओहिया जीवा। णवरं-सिद्धवज्जा भाणियव्वा। दं.२२-२४ वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया जहा नेरइया। -विया. स. १, उ.८, सु. १०-११, ७९. जीव-चउवीसदंडएसुपच्चक्खाणित्ताइ परूवणंप. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? उ. गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि। प. सव्वजीवाणं भंते ! किं पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी? उ. गोयमा ! नेरइया अपच्चक्खाणी जाव चउरिंदिया, सेसा दो पडिसेहेयव्वा। "नैरयिक लब्धि वीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं ?" उ. गौतम ! जिन नैरयिकों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम हैं। वे नारक लब्धिवीर्य और करणवीर्य दोनों की अपेक्षा सवीर्य हैं। जो नारक उत्थान यावत पुरुषकार-पराक्रम से रहित हैं वे नैरयिक लब्धिवीर्य से सवीर्य हैं किन्तु करणवीर्य से अवीर्य हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"नैरयिक लब्धिवीर्य की अपेक्षा सवीर्य हैं और करणवीर्य की अपेक्षा सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी हैं। दं.२-२० जिस प्रकार नैरयिकों के विषय में कथन किया गया है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक पर्यन्त के जीवों के लिए समझना चाहिए। दं. २१ मनुष्यों के लिए सामान्य जीवों के समान समझना चाहिए। विशेष-सिद्धों को छोड़कर कथन करना चाहिए। दं.२२-२४ वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान कहना चाहिए। ७९. जीव चौवीस दंडकों में प्रत्याख्यानादि का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव प्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं ? उ. गौतम ! जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं। प्र. भंते ! क्या सभी जीव प्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं ? उ. गौतम ! नैरयिकों से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त के जीव अप्रत्याख्यानी हैं, शेष दो (प्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी) भंगों का निषेध करना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक प्रत्याख्यानी नहीं हैं, किन्तु अप्रत्याख्यानी भी हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी भी हैं। मनुष्य में तीनों भंग पाये जाते हैं। शेष जीवों का कथन नैरयिकों के समान करना चाहिए। ८०.जीव-चौबीस दंडकों में प्रत्याख्यानादि के जानने और करने का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव प्रत्याख्यान को जानते हैं, अप्रत्याख्यान को जानते हैं और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को जानते हैं ? उ. गौतम ! पंचेन्द्रिय जीव तीनों भंगों को जानते हैं, शेष जीव प्रत्याख्यान को नहीं जानते (अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को भी नहीं जानते।) प्र. भंते ! क्या जीव प्रत्याख्यान करते हैं, अप्रत्याख्यान करते हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं ? उ. गौतम ! पूर्वोक्त सामान्य कथन के समान प्रत्याख्यान करने के लिए भी कहना चाहिए। पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया नो पच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी वि, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी वि। मणुस्सा तिण्णि वि। सेसा जहा नेरइया। -विया. स.६, उ.४, सु.२१ 40.जीव-चउवीसदंडएसपच्चक्खाणाइ जाणण-कुब्वण परूवणं- प. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणं जाणंति, अपच्चक्खाणं जाणंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं जाणंति? उ. गोयमा !जे पंचेंदिया ते तिण्णि वि जाणंति, अवसेसा पच्चक्खाणं न जाणंति। प. जीवा णं भंते ! किं पच्चक्खाणं कुव्वंति, अपच्चक्खाणं कुव्वंति, पच्चक्खाणापच्चक्खाणं कुव्वंति? उ. गोयमा ! जहा ओहिया तहा कुव्वणा। -विया.स.६, उ.,४ सु.२२-२३
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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