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________________ ( १८० ।। दं.२-२४.एवं निरंतरंजाव वेमाणिए। प. जीवेणं भंते ! किं साहिकरणी, निरधिकरणी? उ. गोयमा ! साहिकरणी,नो निरधिकरणी। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ “जीवे साहिकरणी, नो निरधिकरणी?" उ. गोयमा ! अविरई पडुच्च। से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जीवे साहिकरणी नो निरधिकरणी।" दं.१-२४.एवंणेरइए जाव वेमाणिए। प. जीवे णं भंते ! किं आयाहिकरणी पराहिकरणी तदुभयाहिकरणी? उ. गोयमा ! आयाहिकरणी वि, पराहिकरणी वि, तदुभयाहिकरणी वि। प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ "जीवे किं आयाहिकरणी जाव तदुभयाहिकरणी वि?" उ. गोयमा ! अविरइं पडुच्च। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ• "जीवे आयाहिकरणी जाव तदुभयाहिकरणी वि।" दं.१-२४.एवंणेरइए जाव वेमाणिए। - द्रव्यानुयोग-(१)) दं.२-२४. इसी प्रकार निरन्तर वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भंते ! क्या जीव साधिकरणी है या निरधिकरणी है? उ. गौतम ! जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं है। - प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं है? उ. गौतम ! अविरति की अपेक्षा (जीव साधिकरणी है, निरधिकरणी नहीं है) इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'जीव साधिकरणी है निरधिकरणी नहीं है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भंते ! जीव आत्माधिकरणी है, पराधिकरणी है या तदुभयाधिकरणी है? उ. गौतम ! जीव आत्माधिकरणी भी है,पराधिकरणी भी है और तदुभयाधिकरणी भी है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि ‘जीव आत्माधिकरणी भी है यावत् तदुभयाधिकरणी भी है ? उ. गौतम ! अविरति की अपेक्षा से जीव (आत्माधिकरणी भी है यावत् तदुभयाधिकरणी भी है)। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि‘जीव आत्माधिकरणी भी है, यावत् तदुभयाधिकरणी भी है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। प्र. भंते ! जीवों का अधिकरण क्या आत्म-प्रयोग निष्पन्न है, पर-प्रयोग निष्पन्न है या तदुभयप्रयोग निष्पन्न है ? उ. गौतम ! जीवों का अधिकरण आत्मप्रयोग निष्पन्न भी है, परप्रयोग निष्पन्न भी है और तदुभयप्रयोग निष्पन्न भी है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "जीवों का अधिकरण आत्मप्रयोग निष्पन्न भी है यावत तदुभयप्रयोग निष्पन्न भी है?" उ. गौतम ! अविरति की अपेक्षा से (आत्मप्रयोग निष्पन्न भी है यावत् तदुभयप्रयोग निष्पन्न भी है)। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग निष्पन्न भी है यावत् तदुभय-प्रयोग निष्पन्न भी है?' दं.१-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त जानना चाहिए। ८५. शरीर निष्पन्न करने वाले जीवों में अधिकरणी अधिकरण का प्ररूपणप्र. भंते ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? उ. गौतम ! पांच शरीर कहे गए हैं, यथा- , १. औदारिक यावत् ५ कार्मण। प. जीवा णं भंते ! अहिकरणे किं आयप्पयोगनिव्वत्तिए, परप्पयोग-निव्वत्तिए, तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए? उ. गोयमा ! आयप्पयोगनिव्वत्तिए वि, परप्पयोगनिव्वत्तिए वितदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए वि। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ "जीवाणं अहिकरणे आयप्पयोगनिव्वत्तिए जाव तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए? उ. गोयमा ! अविरई पडुच्च। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जीवाणं आयप्पयोगनिव्वत्तिए वि जाव तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए वि। दं.१-२४.एवंणेरइयाणंजाव वेमाणियाणं। -विया स. १६, उ.१, सु.९-१७ ८५. सरीर निव्वत्तेमाणेसुजीवेसु अहिकरणि अहिकरण परूवणं- प. कति णं भंते ! सरीरगा पण्णत्ता? उ. गोयमा !पंच सरीरगा पण्णत्ता,तं जहा १.ओरालिए जाव ५ कम्मए।-विया. स. १६, उ.१, सु. १८
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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