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________________ ( ५६ । द्रव्यानुयोग-(१) (१) दव्वट्ठयाए तुल्ले, (१) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है। (२) पदेसट्ठयाए तुल्ले, (२) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है। (३) ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए। (३) अवगाहना की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है, (४) ठिईए तिट्ठाणवडिए। (४) स्थिति की अपेक्षा त्रिस्थान पतित है, (५) वण्ण,(६) गंध, (७) रस, (८) फासपज्जवेहि (५) वर्ण (६) गन्ध, (७) रस और (८) स्पर्श के पर्यायों छट्ठाणवडिए, की अपेक्षा षट्स्थानपतित है, (९) आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं तुल्ले, (९) आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, सुयणाण पज्जवेहिं छट्ठाणवडिए। श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है, (१०) अचक्खुदंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए।' (१०) अचक्षुदर्शनपर्यायों की अपेक्षा भी षट्स्थानपतित है। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-" "जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं बेइंदियाणं अणंता पज्जवा "जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पण्णत्ता।" पर्याय हैं। एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के पर्याय कहने चाहिए। अजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि एवं चेव अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। णवरं-सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। विशेष-स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। एवं सुयणाणी वि, मइअण्णाणी वि, सुयअण्णाणी वि, इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, मति-अज्ञानी श्रुत-अज्ञानी और अचक्खुदंसणी वि, अचक्षुदर्शनी द्वीन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। णवरं-जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णत्थि, विशेष-जहाँ ज्ञान है, वहाँ अज्ञान नहीं होता, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि। जहाँ अज्ञान है, वहाँ ज्ञान नहीं होता है। जत्थ दंसण तत्थ णाणा वि, अण्णाणा वि। जहाँ दर्शन होता है वहाँ ज्ञान और अज्ञान भी होते हैं। एवं तेइंदियाणं वि। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों के पर्याय के विषय में भी कहना चाहिए। चउरिंदियाण विएवं चेव। चतुरिन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। णवरं-चक्खुदसणं अब्भहियं। विशेष-इनके चक्षुदर्शन अधिक है। दं.२०. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं ओगाहणाइ दं. २०. अवगाहनादि की अपेक्षा से पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के विवक्खया पज्जवपमाणं पर्यायों का परिमाणप. जहण्णोगाहणगाणं भंते ! पंचेंदिय-तिरिक्खजोणियाणं प्र. भंते ! जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों के केवइया पज्जवा पण्णत्ता? कितने पर्याय कहे गए हैं? उ. गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। उ. गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। प. से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि"जहण्णोगाहणगाणं पंचेंदिय-तिरिक्खजोणियाणं अणंता "जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों के अनन्त पज्जवा पण्णत्ता?" पर्याय हैं ?" उ. गोयमा ! जहण्णोगाहणए पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिए उ. गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जहण्णोगाहणयस्स पंचेंदिय-तिरिक्खजोणियस्स दूसरे जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक से(१) दव्वट्ठयाए तुल्ले, (१) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, (२) पदेसठ्ठयाए तुल्ले, (२) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है, १. जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञान वाले बेइन्द्रियों में अज्ञान नहीं है, इसलिए इनमें दस स्थान हैं।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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