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________________ पर्याय अध्ययन "जहण्णगुणकालयाणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता।" एवं उक्कोसगुणकालए वि। "जघन्यगुण काले नारकों के अनन्त पर्याय हैं।" अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, णवरं-कालवण्णपज्जवेहिं छठ्ठाणवडिए। एवं अवसेसा चत्तारि वण्णा, (६) दो गंधा, (७) पंच रसा, (८)अट्ट फासा भाणियव्वा। माग कापश्या प. जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं भंते ! नेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? उ. गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं णेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। प. से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ "जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता?" उ. गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियणाणी णेरइए जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स नेरइयस्स(१) दव्वट्ठयाए तुल्ले, (२) पदेसट्ठयाए तुल्ले, (३) ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, (४) ठिईए-चउट्ठाणवडिए, (५) वण्ण,(६) गंध, (७) रस, (८) फासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, (९) आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं तुल्ले, सुयणाण-ओहिणाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए, इसी प्रकार उत्कृष्ट गुण काले (नारकों के पर्याय भी) समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले नैरयिको के पर्याय जान लेने चाहिए। विशेष-काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा छः स्थानपतित है। (काले वर्ण के पर्यायों के समान) शेष चारों वर्ण, ६.दो गन्ध, ७. पांच रस और ८. आठ स्पर्श की अपेक्षा से भी कहना चाहिए। प्र. भंते ! जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं? उ. गौतम ! जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि "जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं ?" उ. गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिक दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिक से- . (१) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, (२) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है, (३) अवगाहना की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है, (४) स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित है, (५) वर्ण, (६) गन्ध (७) रस और (८) स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, ' (९) आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, "श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है (१०) तीन दर्शनों की अपेक्षा (भी) षट्स्थानपतित है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं।" . (१०)तिहिं दंसणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिए। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता।" एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। अजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि एवं चेव। णवर-आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। एवं सुयणाणी, ओहिणाणी वि। इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के (पर्याय समझ लेने चाहिए)। अजघन्य-अनुत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी के पर्याय भी इसी प्रकार समझने चाहिए। विशेष-वह आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी नैरियकों के पर्याय भी जानने चाहिए। विशेष-जिसके ज्ञान है उसके अज्ञान नहीं होता है। (११) जिस प्रकार ज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में कहा उसी प्रकार अज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए। णवरं-जस्स णाणा तस्स अण्णाणा णत्थि। (११)जहाणाणा तहा अण्णाणा विभाणियव्या।
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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