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________________ अस्तिकाय अध्ययन १४. दिटुंतपुव्वं धम्म - अधम्म - आगासत्थिकाएसु आसणा - दिनिसेहोप. एयंसि णं भंते! धम्मत्थिकार्यसि, अधम्मत्थिकायंसि, आगासत्थिकायंसि चक्किया केई आसइत्तए वा, सइत्तए वा, चिट्ठित्तए वा, निसीइत्तए वा, तुयट्टित्तए वा? उ. गोयमा! णो इणढे समढे। अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा। प. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ "एयंसि णं धम्मत्थिकायंसि जाव आगासस्थिकार्यसि नो चक्किया केई आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा?" उ. गोयमा! से जहानामए-कूडागारसाला सिया दुहओ . लित्ता, गुत्ता, गुत्तदुवारा, जहा रायप्पसेणइज्जे जाव दुवारवयणाई पिहेइ, पिहेत्ता तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए जहण्णेणं एक्को वा, दो वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं पईवसहस्सं पलीवेज्जा, ___३५ ) १४. दृष्टांतपूर्वक धर्म-अधर्म आकाशास्तिकायों पर आसनादि का निषेधप्र. भंते ! इस धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय पर कोई व्यक्ति बैठने, सोने, खड़ा होने, नीचे बैठने और करवट बदलने में समर्थ हो सकता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। उस स्थान पर अनन्त जीव अवगाढ (स्थित) होते हैं। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि इस धर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय पर कोई भी व्यक्ति ठहरने यावत् करवट बदलने में समर्थ नहीं हो सकता यावत् वहां अनन्त जीव अवगाढ होते हैं? उ. गौतम ! जैसे कोई कूटागारशाला हो, जो बाहर और भीतर दोनों और से लीपी हुई हो, चारों ओर से सुरक्षित हो, उसके द्वार भी गुप्त हों इत्यादि राजप्रश्नीय सूत्रानुसार यावत् द्वार के कपाट ढक देता है और कपाट ढक कर उस कूटागारशाला के ठीक बीचोंबीच में कोई जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट एक हजार दीपक जला दें तो हे गौतम ! (उस समय) उन दीपकों की प्रभाएं परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध होकर, एक दूसरे की प्रभा को छूकर यावत् परस्पर एक रूप होकर रहती हैं न? से नूणं गोयमा! ताओ पईवलेस्साओ अण्णमण्णसंबद्धाओ अण्णमण्णपुट्ठाओ जाव अण्णमण्णघडताए चिट्ठति? "हंता! चिट्ठति।" "चक्किया णं गोयमा! केई तासु पईवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव तुयट्तिए वा?" "भगवं ! नो इणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा।". से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ'एयंसि णं धम्मत्थिकायंसि जाव आगासत्थिकायसि नो चक्किया केई आसइत्तए वा जाव तुयट्टित्तए वा अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा।' -विया. स. १३, उ. ४, सु.६६ (गौतम) हां, रहती हैं। (भगवन्) हे गौतम ! क्या कोई व्यक्ति उन दीपक की प्रभाओं पर बैठने, सोने यावत् करवट बदलने में समर्थ हो सकता है? (गौतम) भन्ते ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। उन प्रभाओं पर अनन्त जीव अवगाढ होते हैं। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'इस धर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय पर कोई व्यक्ति ठहरने यावत् करवट बदलने में समर्थ नहीं हो सकता है यावत् वहां अनन्त जीव अवगाढ होते हैं।' १. विया. स. ७, उ. १०, सु. ९,
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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