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________________ | स्व-कथन द्रव्य का अर्थ है-वह ध्रुव स्वभावी तत्त्व, जो विभिन्न पर्यायों (अवस्थाओं) को प्राप्त करता हुआ भी अपने मूल गुण (स्वभाव) को नहीं छोड़ता। विभिन्न दृष्टिकोणों तथा विभिन्न शैलियों से द्रव्यों की व्याख्या, वर्गीकरण एवं प्रस्तुति जिसमें की जाती है-उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। प्रस्तुत द्रव्यानुयोग चार अनुयोगों में द्रव्यानुयोग का विषय सबसे विशाल है, जटिल तथा दुरूह भी है। समस्त विश्व के मूल द्रव्य दो हैं-जीव और अजीव। भगवान की वाणी का मुख्य सूत्र है-'अत्यि जीवा अस्थि अजीवा' जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य की व्याख्या-संपूर्ण द्रव्यानुयोग का आधारभूत विषय है। पंचास्तिकाय में एक जीव है “जीवास्तिकाय" तथा १. धर्मास्तिकाय, २. अधर्मास्तिकाय, ३. आकाशास्तिकाय एवं ४. पुद्गलास्तिकाय-ये चार अस्तिकाय अजीव हैं। इसी प्रकार षड्द्रव्यों में जीव द्रव्य एक है, बाकी पाँच द्रव्य अजीव हैं। दर्शन की भाषा में जीव को चैतन्य और अजीव को जड़ कहा जाता है। यह संपूर्ण संसार जड़-चेतन, जीव-अजीव से व्याप्त है। तत्त्व जिज्ञासु जीव-अजीव के सम्बन्ध में, अर्थात् जड़ और चैतन्य के विषय में अनेक प्रकार की जिज्ञासाएँ रखता है और उसका समाधान खोजता है। जड़-चेतन की जिज्ञासा जितनी सहज है, उसका समाधान उतना ही जटिल और गहन है। पहली बात-समाधान करने वाले ज्ञानी तत्त्वज्ञ पुरुष विरले ही मिलते हैं। दूसरी बात-जीव-अजीव विषयक साहित्य का विस्तार और विविध आगमों में विकीर्णता। आगमों में अनेक स्थानों पर अनेक प्रसंगों पर प्रश्नोत्तर के रूप में जीव-अजीव विषयक चर्चाएँ हैं। वह चर्चाएँ कहीं विस्तार रूप में हैं, तो कहीं संक्षिप्त, अति संक्षिप्त रूप में। लगभग सभी आगमों में जीव-अजीव विषयक विभिन्न प्रकार की भिन्न-भिन्न सामग्री बिखरी हुई है। जीव के सैकड़ों विषय और उप-विषय भी आगमों में आते हैं। अनेक प्रकार के प्रश्नोत्तर तथा चर्चाएँ भी हैं। उन सब सम्बन्धित विषयों तथा प्रसंगों को, उन चर्चाओं तथा वर्णकों को स्मृति में रखना, धारणा में स्थिर कर पाना सामान्य बुद्धि वालों के लिए अत्यन्त कठिन है। आगमों के विशेषज्ञ ज्ञानी गुरु सर्वत्र नहीं मिलते, इसलिए उन विषयों को समझना और उनके पूर्वापर सम्बन्धों को मिलाकर चिन्तन-मनन करना अत्यन्त दुरूह है। इस बहुत विघ्नों वाले स्वल्प जीवन में ऐसा कर पाना बहुत ही कठिन है। जीव आदि किसी विषय की समग्र जानकारी प्राप्त करने के लिए अनेक आगमों को देखना और उनमें से खोजकर निकालना बड़े-बड़े विद्वानों और आगमज्ञों के लिए भी संभव नहीं है। क्योंकि न तो इतना विपुल साहित्य सरलता से उपलब्ध होता है और साहित्य की उपलब्धि होने पर भी विशाल महासागर के आलोडन की तरह उन सभी आगमों का आलोडन (मन्थन) कर पाना बहुत श्रम व समय माँगता है। ऐसी स्थिति में द्रव्यानुयोग के जिज्ञासु व्यक्तियों के लिए प्रस्तुत संकलन अवश्य ही उपयोगी सिद्ध होगा। इस सम्पादन में मैंने जिज्ञासुजनों की कठिनाइयों का अनुभव करते हुए अनेक प्रकार की सरल पद्धतियाँ अपनाई हैं। जीव-अजीव आदि विषयों को वर्गीकृत किया है और फिर प्रत्येक विषय के भेद-उपभेदों से सम्बन्धित जहाँ जिस आगम में जो पाठ उपलब्ध होते हैं, उनको अनेक अध्ययनों, शीर्षकों, उप-शीर्षकों में विभक्त किया है तथा आगम पाठों को सहज सरल पद्धति से इस प्रकार लिखा है कि पाठ को देखने पर ही विषय का क्रमबद्ध ज्ञान हो सकता है और वह विषय जिन-जिन आगमों में यथारूप या कुछ परिवर्तन के साथ आया है, उसकी सूचना भी प्राप्त हो सकती है। संकलन शैली में अनेक बार परिवर्तन करके, विषय-क्रम को अत्यधिक सरल और सुबोध बनाने का प्रयत्न किया है और इसी कारण द्रव्यानुयोग के संकलन, संपादन में बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया। अभी भी मुझे पूर्ण सन्तोष नहीं है, किन्तु अब वृद्धावस्था एवं शरीर की स्थिति को समझते हुए इस ग्रन्थ को अधिक लम्बाना उचित नहीं समझा अतः एक क्रमबद्ध व्यवस्थित रूप देकर जिज्ञासुओं के हाथों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। अनुयोग का स्वरूप जैन साहित्य में ‘अनुयोर' के दो रूप मिलते हैं१. अनुयोग-व्याख्या २. अनुयोग-वर्गीकरण किसी भी पद आदि की व्याख्या करने, उसका हार्द समझने/समझाने के लिए १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम और ४. नय-इन चार शैलियों का आश्रय लिया जाता है। अनुयोजनमनुयोगः-(अणुजोअणमणुओगो) सूत्र का अर्थ के साथ सम्बन्ध जोड़कर उसकी उपयुक्त व्याख्या करना, इसका नाम है-अनुयोग-व्याख्या (जम्बू. वृत्ति)। अनुयोग-वर्गीकरण का अर्थ है-अभिधेय (विषय) की दृष्टि से शास्त्रों का वर्गीकरण करना। जैसे अमुक-अमुक आगम, अमुक अध्ययन, अमुक गाथा, अमुक विषय की है। इस प्रकार विषय-वस्तु की दृष्टि से वर्गीकरण करके आगमों का गम्भीर अर्थ समझने की शैली अनुयोग-वर्गीकरण पद्धति है। (११) पशीर्षकों में विभक्त किया है तथा जन-जन आगमों में यथारूप या कुछ पाल और सुबोध बनाने का
SR No.090158
Book TitleDravyanuyoga Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1994
Total Pages910
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size32 MB
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