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________________ NAETECREASURERERAKetariassMISARAKASAMASUTREMEMSRTREN विष्णु, महेश का ही नहीं, अपितु जिनेन्द्र प्रभु का समवशरण रचने पर भी उसका श्रद्धान चलायमान नहीं हुआ ॥ ११|| • पांचवां उपगहन अंग स्वरूप आत्म वृद्धि की वृद्धि हित, क्षमादि भाव न भाय । निज गुण पर अवगुण ढकन, उपगूहन कहलाय ॥ १२ ॥ अर्थ - सम्यक्त्व का पांचवाँ अंग उपगूहन है। गूहन का अर्थ है टैंकना और उप का अर्थ समन्तात या पूर्णतः होता है। इसी का दूसरा नाम “उपवृहण" भी है। यहाँ श्लोक में दोनों ही शब्दों को लेकर वर्णन है। प्रथम, तप, ध्यान, संयम, त्याग, व्रतोपवासादि, कषायोपशमनादि गुणों-क्रियाओं द्वारा आत्म शक्ति की वृद्धि करना, आत्म गुणों का प्रकटीकरण करना अर्थात् आत्मा को कर्म मल से विमल करते जाना "उपवृहण" अंग है। द्वितीय शब्दापेक्षा निज गुणों और पर के दूसरे भव्यों के अवगुणों-दोषों को आच्छादित करना, प्रकाशित नहीं करना “उपगृहण" है। अर्थापेक्षा मीमांसा करने पर कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही अर्थ एक मात्र आत्मोत्थान, आत्मविकास करना ही है। कर्मास्रव के प्रकरण में श्री उमास्वामी ने कहा है "तद्विपर्ययो नीचैत्यनुत्सेको चोत्तरस्य" ॥६/२७ सू. । अर्थात् नीचगोत्र के आस्रव के कारणों से विपरीत आत्म निन्दा, अन्य प्रशंसा, गुणीजनों में ११. लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरूचिना कर्त्तव्यमूढदृष्टित्वम् ॥ २६ ॥ पु. सि. अर्थ - लोक व्यवहार में (लोक मूढ़ता में) शास्त्राभास में, धर्माभास में, देवता भास में और चकार से तत्त्वाभास, आप्ताभास आदि में धर्म के किसी भी पहलू में - तत्त्वाभिरूचि रखने वाला सम्यग्दृष्टि श्रद्धालु नहीं होता - इस प्रकार श्रद्धा में मूढ़ता नहीं होना ही अमूढ़दृष्टि अंग है ।। ११॥ 1746 RAAMATUTUBARASANA K 254 धमनिपद श्रावकाचार ~
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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