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________________ ANKERZURRA SUBARUNGSAU atat UZUNERAKURRA पदार्थों को सर्वथा क्षणभंगुर अनुभव करता है, भोगोपभोग पदार्थों, विषयवासना से उदासीन रहता है। विरक्त रहकर आत्म साधना में रत रहता है। गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी जल में पंकज की भांति अलिप्त रहता है फिर भला, तप साधना, धर्मध्यान कर उनसे परभव में स्वर्गादि सम्पदा, वैभवादि आकांक्षा क्यों करेगा ? अतः परभव में भोगों की आकांक्षा से विरत होना निःकांक्षित अंग है। इसका पालक धर्मानन्द में मग्न रहता है।॥ ९॥ • तृतीय निर्विचिकित्सा अंग का लक्षण स्वभाव से अपवित्र तन, रत्नत्रय युत हो शुद्ध। ग्लानि रहित गुण प्रीतिहि, निर्विचिकित्सा बुद्ध ॥१०॥ अर्थ - शरीर की स्वभाव से स्थिति क्या है ? नवद्वार बहे घिनकारी। अर्थात् शरीर हाड़-मांस, चर्म, रक्त, पीव, मल-मूत्र का भण्डार है। यदि मल से भरा, मला ही से निर्मित घर में पविता खोज सो क्या प्राप्त होगी ? नहीं। इसी प्रकार यह मानव शरीर भी पिता का वीर्य और माता की रज के निश्रण से निर्मित है और ऐसे पदार्थों से भरा है। तथाऽपि इसकी भी पवित्रता रत्नत्रय धारणसे हो सकती है। इस रत्नत्रय परम पवित्र औषधि के धारक परम वीतरागी दिगम्बर जैन साधु होते हैं। फलतः उनका अपावन शरीर भी तप साधना से पवित्र हो जाता है। उनके शरीर को बाह्य मल, धूल-मिट्टी, पसेवादि से मलिन ९. इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । एकान्तवाददूषित परसमयानपि च नाकांक्षेत् ॥ २४ ॥ पु. सि. ॥ अर्थ - इस जन्म में स्त्री पुत्र धन-धान्य आदि वैभव की तथा परलोक में चक्रवर्ती, नारायण इन्द्र आदि पदों की इच्छा न होना निःकांक्षित अंग है । सम्यग्दृष्टि जीव जानता है कि वैभव का मिलना न मिलना पुण्य पाप कर्मोदय के आधीन है इच्छानुसार ये कभी किसी को मिलते नहीं अतः तज्जन्य इच्छायें उसकी चित्तभूमि में उत्पन्न ही नहीं होती HREETREAMIKARASassetSANGERMAHARuskaansushmaSEXERER धमनिन्द श्रावकाचार-८५
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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