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________________ SAMANUNTURA TURUN URMA UNURGNUTU UTARA गुण के कर्म विपाक स्थिति का क्षीण होना प्रायोग्य लब्धि है। अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणामें को करणलब्धि कहते हैं। इसके होने पर नियम से सम्यग्दर्शन होता ही है। इसकी योग्यता विहीन असंज्ञी आदि जीव को कदाऽपि रत्नत्रयोपलब्धि नहीं होती॥ २ ॥ • रत्नत्रय फल प्राप्ति योग्य कौन ? - सम्यग्दर्शन ज्ञान युत, अहिंसामय चारित्र । श्रावक मुनिव्रत पालकर, करते स्वात्म पवित्र ॥ ३॥ अर्थ - यहाँ आचार्य श्री का अभिप्राय श्रावक-मुनि के भेद से रत्नत्रय के फल पाने का विभाजन कर स्पष्टीकरण करना है । प्रथम श्रावक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, उसके साथ ही सम्यग्ज्ञान भी हो जाता है। दोनों की उपलब्धि होने पर उसके परिणामों में स्वतः विनय, दया, विवेक भी जागृत हो जाता है। अतः अहिंसाभावों से जीवरक्षण का ध्यान रखकर गृहस्थाश्रम के आरम्भादि को करता है। लोभ, लालच भी मन्द हो जाता है ! आशा-तृष्णा मन्द होना सम्यक् चारित्र का प्रतीक है। भक्ष्याभक्ष्य का विचार जाग्रत हो जाता है। परन्तु यह रत्नत्रय एकदेश ही रहता है। इसलिए फलरूप सुख-सम्पदा भी अधूरी ही प्राप्त होती है। हाँ, यह अधूरापन उससे छिपा नहीं रहता है। उसकी पूर्ति के लिए वह छटपटाता है और अवसर पाते ही सर्वसंग-परिग्रह त्याग दिगम्बर मुनि बन जाता है और इस अवस्था से घोर कठोर तपकर अपनी आत्मा का पूर्ण विकास करने में समर्थ होता है । रत्नत्रय को पूर्ण कर क्रमशः मुक्ति पा लेता है ॥३॥ २. भव्य, पर्याप्तिवान्, संज्ञी, लब्धकालादिलब्धिकः, सद्धर्मग्रहणेऽर्हो नान्योजीवः कदाचन - जो भव्य है, पर्याप्तक है, संज्ञी है, काललब्धि आदि योग्य लब्धियों को प्राप्त कर चुका है वहीं सद्धर्म को ग्रहण करने में समर्थ होता है अन्य नहीं। imangeasuriSATARANAursiananasamasumARASIMAmasaxx धर्मानन्ह प्रावकाचार-८०
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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