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________________ ATARABANGKAKARARAVANS KAVU चारित्र पालन की विशेषताएँ हैं - प्रथम प्रतिमा से छठवीं प्रतिमा तक पालन करने वाले चारित्री "गृहस्थाश्रमी" कहलाते हैं। सातवीं प्रतिमा से नवमी प्रतिमा धारी चारित्र पालक "ब्रह्मचारी" कहलाते हैं। दसवीं, ग्यारहवीं प्रतिमा सम्बन्धी चारित्र पालक “वानप्रस्थ' कहे जाते हैं। और इनके ऊपर परम वीतरागी, बाह्याभ्यंतर परिग्रह त्यागी दिगम्बर साधु-मुनिवर “यत्याश्रमी" कहलाते हैं। चारों ही आश्रमों की सिद्धि सम्यग्दर्शन पूर्वक होती है ।। २७ ।। • प्रतिज्ञा ग्रहण धर्मानन्दा गृही आचार में, यदि बुध किया विहार । चुन-चुन प्रतिज्ञा पुष्प का, गुण युत पहनो हार ॥ २८॥ अर्थ - जो गृहस्थ-श्रावक अपने आचार-विचार, षट्कर्मों के पालन में निरंतर प्रवृत्ति करते हैं अर्थात् पालन करते हैं, वे क्रमशः चारों आश्रमों के गुणरत्नों को गुण रूपी डोरी में पिरोकर रत्नत्रय गम्फित हार तैयार कर धारण करते हैं। अर्थात् आत्मा का पूर्ण विकास कर सिद्धि सौध में अनन्तकाल पर्यन्त आत्मानन्द में निमग्न हो जाते हैं ।। २८ ।। • प्रथम अध्याय का सारांश रत्नत्रय आराधकर, दोष त्रय को त्याग। महावीर की अर्चना, धरो हृदय बड़भाग ॥ २९॥ अर्थ – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीन रत्न हैं। इनका एकीकरण रत्नत्रय कहलाता है। इनकी सिद्धि तीन दोषों - १. मिथ्यादर्शन, २. मिथ्याज्ञान और ३. मिथ्याचारित्र के त्याग परिहार से होती है । अतः भव्य बड़भागी बुधजन इन दोषों का सर्वथा त्याग कर रत्नत्रय की आराधना पूर्वक भगवान महावीर स्वामी की अर्चना, भक्ति-आराधना में तत्पर रहें। जिनभक्ति करें। यही परम्परा से मुक्ति का सफल साधन है ।। २९ ।। इति प्रथम अध्याय HITNASREGERIESUERIAsaraesasasasisamancreaseDEara धर्मानन्द श्रावकाचार499
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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