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SARDASARREALISA TAKANAKAKAKABABASASURAREA • धर्मानन्द की महिमा
धर्मानन्द सब गुण निधि, वित्तादिक सुखधाम। धर्ममूल व्रत शील को, धारों आठों याम ॥५॥
अर्थ - धर्म आनन्द का खजाना है। गुण निधियों का सागर है, लौकिक सुख-सम्पदाओं का दाता है। अतएव धर्म की मूल व्रत, शील संयम है । इसलिए सुख शान्ति के इच्छुक इस परम पावन धर्म का अहर्निश सेवन करोपालो॥५॥
...भावार्थ - जल, स्थल और आकाश में जहाँ जो भी जीव हैं, जलचर हों, थलचर हों या नभचर उनका वह शरीर एकमात्र ब्रह्म की ही पर्याय है। वाचस्पति आदि श्रेष्ठ नामधारी वह ब्रह्मा या विष्णु बलवान है, श्रेष्ठ है, दयालु है, हम सब चूंकि उसी ब्रह्मा के अंश हैं अतः आशीर्वचनात्मक अलंकार में स्तुति करते हुए वेद के रचयिता त्रापि यहाँ कहते हैं कि वे विष्णु हमें न मारें, हमारा रक्षण करें हमें सुख शान्ति प्रदान करें।
उक्त सूक्ति रचना की संस्कृत टीका
महाकारण्यको जगदीश्वरो जीवं बोधयति-सर्वेश्वर्यै ककारणीभूतायै मत्प्रीतये विद्वद्भिः सर्व जन्तवः सदारक्षणीयाः, न च तेषु केचन हिंसनीयाः। ऋषयो ब्राह्मण देवाः प्रशंसन्ति महामते । अहिंसा लक्षणं धर्म वेद प्रामाण्यदर्शनात् ।
(महाभारत अनुशासन /५) इस संस्कृत टीका का अर्थ -
महा करूणावान जगदीश्वर विष्णु देव जीवों को प्रबोधित करते हुए कहते हैं - सम्पूर्ण चराचर जगत् का ऐश्वयं जिसमें केन्द्रित है ऐसे मुझमें प्रीति रखते हुए विद्वान पुरूषों को भगवत् प्रीति के वश सभी प्राणियों की रक्षा करनी चाहिए, उनमें छोटे-बड़े किसी भी जीव का घात नहीं करना चाहिए। मूल सूक्ति में वर्णित जो ऋषि शब्द है उसका अर्थ है ब्राह्मण देवता । परम ज्ञानी ब्राह्मण देव उक्त प्रकार अहिंसा का वर्णन करने वाले हैं। प्रस्तुत विषय इस बात को स्पष्ट करता है कि अहिंसा लक्षण वाला धर्म मात्र जिनेन्द्र प्रणीत ही नहीं, वेदप्रमाण से भी सिद्ध है ।। ४ ।। CATARAKARTASUNARENDRAUTERLALAADURAINATARK
जिन्द श्रावकाचार -४८