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________________ SAKATAULANAK KANAKARUNAKARARAUDONURAKARNA गुणवानों पर नजर रहने से अपने में स्वभाव से न्यूनता दिख पड़ने लगती है। अस्तु आचार्य श्री कथन करते हैं - मैं छन्द, काव्य कला से अनभिज्ञ हूँ। परन्तु धर्मानन्द का रसिक हूँ। इसका जो परम आनन्दानुभव होता है वह हर प्राणी को उपलब्ध हो इसी अनुकम्पा-परोपकार भावना से यह ग्रन्थ रचना की है। इसका प्रवाह यावच्चन्द्र दिवाकर प्रवाहित रहकर भव्यात्माओं का आत्मकल्याण करे यही भावना है। इसमें शब्द, अर्थ, छन्द विन्यास में जो भी त्रुटि हो बुधजन पाठक सुधारने का कष्ट करें। प्राणीमात्र को धर्मानन्द प्राप्त होगा, इसी आशा से ग्रन्थ समाप्त किया है। लघुता-विनम्रता की द्योतक है ।। २२-२४ ॥ कहा भी है - "लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर।" - कृतिकार का परिचय - श्रावक पद में रहि, पुनि ऊदगांव में आय। आचार्य आदिसागर से, धारी दीक्षा सुखदाय ॥ १ ॥ जो वारिधि स्याद्वाद के, वादीभसिंह केसरी जान । वाचस्पति नय शास्त्र के, थे विद्वान महान ॥२॥ धर्म, न्याय, व्याकरण युत, पूर्ण ज्ञान साहित्य । शास्त्राध्ययन से जिन, याया कुछ पाण्डित्य ॥३॥ अंकलीकर विख्यातवें, महातपस्वी वीर, 'मुनिकुंजर' विख्यात वे, दयानिधि भरपूर ।। ४ ।। उनका पाया शिष्य पद, महावीर कीर्ति मुझ नाम । उन्हीं का आचार्य पद, प्राप्त लिखा यह मर्म ॥ ५ ॥ SARRIERSAREERRERSEENETurasRecznasaxeKESRERSasaram धमिन्द श्रावकाचार-३३५
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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