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________________ ARARONAUKAMSTRACARA RUTATOKEANGELSEARA • व्रतभंग का दुष्परिणाम गुरू देवादि की साक्षी से, गहिव्रत करे न भंग। चाहे मृत्यु भी क्यों न हो, तीव्र दुखद व्रत भंग ॥ १८ ॥ अर्थ - व्रत का रक्ष है परिधि । अर्थात् बुरे कार्यों का त्याग करना, आत्म साधना के सहायक कार्यों के करने का व्रत-नियम लेना व्रत कहलाता है। "वृत्तति इति व्रतम्' अर्थात् जो धर्म आत्मा स्वभाव का चारों ओर से सुरक्षा करें उन्हें व्रत कहते हैं। जिस प्रकार नगर की रक्षा परकोटा करता है, राष्ट्र-राज्य की सुरक्षा किले से होती है उसी प्रकार मानव जीवन उपवन की रक्षा व्रतों नियमों के द्वारा होती है। इनकी महत्ता के लिए ये ब्रत सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की साक्षी पूर्वक धारण किये जाते हैं। जिस प्रकार बीमा, राजीनामा पत्रों पर सरकारी मुहर लगने पर उनकी मान्यता होती है और दुरुपयोग किया तो राज्यद्रोही अपराधी माना जाता है। इसी प्रकार व्रत धारण कर यदि भंग करे तो वह धर्म की अदालत में महापापी अपराधी होता है। इसीलिए परम दयालु भगवन्त व आचार्यों परमेष्ठियों ने सावधान करते हुए आज्ञा व आदेश दिया कि प्राण कण्ठ होने पर भी व्रत भंग नहीं करना चाहिए। प्राणनाश होने से एक भव ही बिगड़ेगा, दुःख होगा परन्तु व्रत भंग किया तो भव-भव में जन्म-मरण के भीषण दुःखों के साथ-साथ नरकादि -.. २. जो साधुराज भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करते हैं, वन में निवास करते हैं,अल्प शुद्ध-छियालीस दोष और ३२ अंतरायों को टालकर आहार लेते हैं अधिक वार्तालाए नहीं करते और अल्प निद्रा लेते हैं वे तपोधन हैं।। ३. जो नित्य ही जिनलिंग-निग्रंथ मुद्रा धारण करते हैं, पूर्ण रत्नत्रय को धारण कर पालन करते हैं, भिक्षावृत्ति से निर्दोष शुद्ध आहार चर्या करते हैं उन ऋषियों में मुख्य श्रेष्ठ ऋषिराजों को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ। नमन करता हूँ।॥ १७ ॥ 224AARTUNATAMARASAKANAKALAKARARANASANATAKA धानन्द श्रावकाचार-३२८
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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