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________________ SASAKAKASARÁSZUASAS SARASASAGNEAEREA अर्थ - आहार चर्या काल में समिति पूर्वक गमन करता श्रावक के आंगन में जाता है । शान्त भाव से " धर्मलाभ " इस प्रकार उच्चारण करता है । कह कर मौन हो जाता है। श्रावक द्वारा विनय से स्वीकृति देने पर सन्तोष से निरुद्दिष्ट अर्थात् जो कुछ श्रावक ने अपनी इच्छा से अपने लिये बनाया है उसी में से यथायोग्य आवश्यकतानुसार भोजन करे। राग-द्वेष न करें। अच्छे-बुरे का विकल्प त्यागे, इसे क्षुल्लक कहते हैं ॥ १५ ॥ • ऐलक का स्वरूप - ऐलक ढिंग कौपीन कटि, पंछी कमण्डलु साथ । पाणिपात्र बैठे अशन, केशलौंच निज हाथ ॥ १६ ॥ अर्थ सप्तमुक्त, जन्म-मरण संतति से भयभीत उत्तम श्रावक जो एक कौपीन मात्र धारण करता है। पींछी, कमण्डलु रखता है । भिक्षावृत्ति से करपात्र में बैठकर आहार ग्रहण करता है। शुद्ध मौन से संतोषपूर्वक, धर्मध्यान हेतु शरीर स्थिति के योग्य शुद्ध श्रावकों के यहाँ शुद्ध आहार ग्रहण करता है । स्वयं दो, तीन या चार माह में अपने हाथों से ही केशलौंच करता है । यह भी ११ वीं प्रतिमा उत्तम श्रावक ऐलक कहलाता है । १६ ॥ I - १५. स्थित्वा भिक्षां धर्मलाभं भणित्वा प्रार्थयेत् वा । मौनेन दर्शियित्वांगं लाभालाभे समेऽचिरात् ॥ अर्थ - श्रावक शुद्ध घर में जाकर आंगन में स्थित हो "धर्मलाभ” बोले अथवा मौन से शरीर मात्र दिखलाकर भिक्षा ग्रहण करें, नहीं मिले तो खेद न करें अर्थात् लाभालाभ में समचित्त रहें ॥ १५ ॥ १६. तद्वद् द्वितीयः किंत्वार्य संज्ञा लुंचत्यसौ कचान् । कोपीन मात्र युग्धत्ते यतिवत्प्रतिलेखने ॥ अर्थ - द्वितीय भेद वाले ऐलक को आर्य कहते हैं। यह हाथ से केशलौंच करता है। मुनिराज के समान पिच्छी-मयूर पिच्छी रखता है ॥ १६ ॥ CACCCACANACZSZEREZEREGEREABAEARABAYABASABASAYAYAYA धर्मानन्द श्रावकाचार - ३२६
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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