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नहीं कर सकता । उसी कोटि का यह शरीर है मल-मूत्र के साथ अनन्त सूक्ष्म निगोदिया जीवों से भरा है। एक बार संभोग (स्त्री संभोग) करने पर नव लक्ष कोटि जीवों का घात होता है। जिस प्रकार तिलों भरी नाली ( नलिका) में तपती आग समान लोहे की गर्म सलाई घुसा दें तो वे तिल चट-चट झुलस जायेंगे, इसी प्रकार नारी के योनि स्थान में पुरुष लिंग प्रवेश संघट्टन से उपर्युक्त प्रमाण जन्तु समूह तत्काल यमलोक की यात्रा कर जाते हैं, मर जाते हैं झुलसझुलस कर । वीभत्स स्थान तो है ही। अतः दयाधर्मी श्रावक घृणित कार्य का त्याग कर शान्ति मार्ग, दयामयी - अहिंसाधर्म का रक्षण करने हेतु सर्वथा सर्वदा के लिए मैथुन का सर्वथा त्याग कर धर्म की शरण ग्रहण करता है।
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अपने व्रत के निर्दोषार्थ वह अपनी विवाहिता के साथ एक बिस्तर पर शयन नहीं करता, अतिनिकट वास नहीं करता, पूर्व भोगे भोगों का स्मरण नहीं करता, भोगों के सम्बन्धी, कामवासना जाग्रत करने वाली कथा - वार्ता चर्चा नहीं करता, कामोद्दीपक पौष्टिक आहार नहीं करता । रागोत्पादक वस्त्राभरण-श्रृंगारादि का त्याग करता है। काम वासना जाग्रत करने वाले गीतादि नहीं सुनता, अश्लील उपन्यास, पत्र-पत्रिकाएँ आदि न पढ़ता है, न पढ़ाता है, न पढ़ाने की इच्छा ही करता है। कामोत्तेजक पुष्प, माला, इत्रादि वस्तुओं का उपयोग नहीं करता है। इस प्रकार काम भोग- वासना से सर्वथा विरक्त रहता है। अन्य का विवाह आदि न करता है न कराता है न अनुमोदना करता है। यदि स्वयं के पुत्र-पुत्रियाँ हों और स्वयं पर ही भार हो तो कर सकता है । परन्तु सतत् विरत भाव ही रखता है। परिवार पालन का भार हो तो यथा योग्य वाणिज्यादि कर सकता है। आवश्यकतानुसार षट्कर्मों का अवश्य पालन करता है। पूजा दानादि करता है ॥ ८ ॥
८. १ ततो दृग् संयमाभ्यां स वशीकृत मनस्त्रिधा । योषात्वशेषा नो योषां भजति ब्रह्मचर्य सः ॥
अर्थ- सम्यग्दर्शन और संयम के द्वारा जिसने मन, वचन, काय को वश कर.. CACHUACANAVAYAYAYAYACAKSAMANAKAGA
BANANA
धर्मानन्द श्रायकाचार ३१९