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SasaeeRTREATRESUSassasisussiesasuraaNATASASasa संसार-शरीर भोगों के प्रति विरक्त होता है। पञ्च परमेष्ठी - अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं में अडिग भक्ति करता है, विशेष रूप जिन दर्शन व्रत अनुष्ठानादि के साथ श्रावक के षट् कौ -
देवपूजा गुरुपास्ति, स्वाध्याय संयमस्तपः।
दानश्चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने-दिने ।। १. देव - जिनेन्द्र भगवान की पूजा, २. निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्राधारी गुरुओं की उपासना, ३. जिनागम का अध्ययन-वाचन, ४. संयम-षट्काय जीवों का यथासंभव रक्षण, पंचेन्द्रिय और मन को अशुभ क्रियाओं से रोकना, ५. तप - यथा समय यथायोग्य व्रत उपवासादि करना और ६. दान - योग्य काल में चतुर्विध संघको चार प्रकार का दान देना | इस प्रकार नियम बद्ध कर्तव्य निष्ठ होना प्रथम दर्शन प्रतिमा कहलाती है। इसका धारी दार्शनिक श्रावक होता है।। २॥ • २. व्रत प्रतिमा स्वरूप
निरतिचार निःशल्य नित, बारह व्रत अभिराम ।
इस श्रावक आचार का है, व्रत प्रतिमा नाम ॥३॥
अर्थ - उपर्युक्त दर्शन प्रतिमा के सम्पूर्ण व्रत-नियमों के पालन के साथसाथ पाँच अणुव्रत, चार शिक्षाव्रत और तीन गुणव्रतों का पालन करना द्वितीय व्रत प्रतिमा है। यद्यपि प्रथम प्रतिमा में कुछ अंश में इनका पालन होता है परन्तु
२. सम्यग्दर्शन शुद्धः संसार शरीर भोग निर्विण्णः ।
पञ्च गुरुचरण शरणो दार्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥ १३७॥२. क. श्रा.। अर्थ - जो निरतिचार सम्यक्दर्शन का धारक है, संसार, शरीर और विषय भोगों से निरंतर विरक्त-उदासीन रहता है, तथा अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय
और साधु इन पांचों परमेष्ठियों की शरण में दत्तचित्त रहता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दार्शनिक श्रावक कहलाता है ।। २।। sagasesasiasmeSEXERERRASSUERSamusiNiskosasarsawzawara
धर्मानन्द प्रावकाचार -३१३