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SASASLANAYAGARASARANANA
ANASA
LAKANAKAER
भावार्थ- पुण्य पाप कर्म के उदय के आधीन जो बाह्य स्त्री-पुत्रादि इस पर्याय के उपकारक तथा अपकार द्रव्य प्राप्त हुए थे उनमें से जिन को इस पर्याय का उपकारक जाना उनसे दान-सम्मान आदि द्वारा राग किया तथा जो इस पर्याय के उपकारक द्रव्यों को नष्ट करने वाले थे उनसे वैर किया अतः क्षपक श्रावक राग-द्वेष का त्याग करें तथा समस्त बाह्य अभ्यन्तर जो परिग्रह हैं उनसे ममत्व भाव छोड़कर शुद्ध निर्मल भावों को धारणकर अन्तरंग में पश्चाताप करता हुआ अपने कुटुम्बी पुत्र पुत्री पत्नि, माता-पिता भाई-बन्धु आदि एवं परजन नौकर-चाकर दास-दासी आदि से करबद्ध हो क्षमा माँगे और स्वयं भी सबको क्षमा करें ॥ ५ ॥
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• इसके परिणाम
सब जीवन को छमहुं मैं, मुझें छमहुं सब जीव |
सब में मैत्री भाव सम, रहै न वैर कदीव ॥ ६ ॥
अर्थ- सल्लेखना धारी क्षपक-साधक निरन्तर इस प्रकार भावना भाता है कि संसार के प्राणीमात्र को मैं क्षमा प्रदान करता हूँ तथा सभी जीवात्मा मुझे क्षमा करें। इस प्रकार अपने परिणामों को निर्मल उज्ज्वल व सरल बनाकर, समता रस पान में निर्मग्न रहता है। साम्य भाव ही तो समाधि, स्वास्थ्य एवं सल्लेखना मरण है ॥ ६॥
५. स्नेहं वैरं संगं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः ।
स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियैर्वचनैः ।। १२४ ॥
अर्थ - आर्जवभाव से शुद्धमन करके प्रिय वचनों, मधुर वाणी से, राग-द्वेष, शत्रुता मित्रता, आरम्भ-परिग्रह का सर्वथा त्याग कर पारिवारिक जनों से अपने सगेसम्बन्धियों को क्षमा करें और उनसे क्षमा करावें। इस प्रकार प्रथम अपने परिणामों को निष्कपट - निश्छल शुद्ध करें। पुनः सल्लेखना धारण कर शान्ति पूर्वक प्राण विसर्जन करना चाहिए। और भी ॥५॥
SASALTEACELLUL
(TEACASACAVAEASDEASACAENGALA
धर्मानन्द श्रावकाचार २७९