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NAKAKAKUHA KANUURUNKARUKTÚRRARA ARZUARACHER जाती है ठीक उसी प्रकार लोभ रूपी अग्नि की वृद्धि के लिए यह परिग्रह रूपी घृत आहुति का काम करती है। परिग्रह रूपी पिशाच मनुष्य को दुर्गति में ले जाता है अर्थात् परिग्रह से मनुष्य सीधा नरक जाता है। परिग्रह की ममता कारण भी लोभ है कहा भी है कि -
लोभ लानि पापानि रसमूलानि व्याधयः। स्नेह मूलानि शोकानि भीणि त्यक्त्या सुखी भवेत् ।। अर्थ - पाप का मूल लोभ है, व्याधि की जड़ गरिष्ठ पदार्थों का सेवन है और शोक संताप का कारण स्नेह है। इन तीनों को छोड़ने वाला व्यक्ति सुखी होता है। अतः आत्मा को मलिन करने वाले लोभ का परित्याग करने से समस्त पापों का स्वतः त्याग हो जाता है एवं आत्मा निर्मल उज्ज्वल बनती है ।। २८॥ • परिग्रह में हिंसा
मिथ्यात्व आदि चौदह कहे, हिंसा के पर्याय । बाह्य परिग्रह ममत्व भी, हिंसा हेतु कहाय ॥ २९ ॥ अर्थ - मिथ्यात्व आदि अन्तरङ्ग परिग्रह के जो चौदह भेद बताये हैं वह
२८. अविश्वास तमो नक्तं, लोभानल घृता हुतिः। आरम्भ मकरांभोधिरहो श्रेयः परिग्रहः । २. यद् घोघः क्षितौ वित्तंनिचखानमितं पचः । तदधो निलयगंतुं चक्रे पंथानमग्रतः॥ ___अर्थ - १. परिग्रह का प्रकरण है - समस्त प्रकार का परिग्रह लालसा दिन में ही अविश्वासरूपी घोर अंधकार है, लोभ कषाय अग्नि में डालने वाली हव्य-हवन करने के पी समान है। अर्थात् लोभ अग्नि है और परिग्रह हव्य है। आरम्भ रूपी सागर में डालने के समान है भला ऐसा परिग्रह क्या कल्याणकारक हो सकता है ? कदाऽपि नहीं। २. जो मूढ़ धन को पृथ्वी के अन्दर गाड़कर रखता है, अर्थात् भूमि रूपी खान को भरने की चेष्टा करता है, वह अधोलोक-नरकबिलों में प्रवेश करने के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। अर्थात् नरक की यात्रा के लिए पाथेय तैयार करता है ।। २८॥ samasRETraisuesasrasANISARSaasasuresURRERNAGANA
धमनन्द श्रावषापार-~२३६