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________________ こなさ NANAN BABASASAKA जो आत्मा के चारित्र गुण को घाते वह चारित्र मोहनीय हैं। इसके संक्षेप में १३ भेद हैं। चार कषाय, हास्यादि ६ अकषाय एवं ३ वेद । (१) १. गुस्सा करने को क्रोध कहते हैं । २. मान - अहंकार अभिमान को कहते हैं । ३. छल कपट को माया कहते हैं । ४. लालच को लोभ कहते हैं। बहुत इच्छा भी लोभ है। (२) हास्यादि ६ अकषाय का स्वरूप - १. जिस कर्म के उदय से हँसी आती है वह हास्य कर्म है । २. जिस कर्म के उदय से देश आदि में उत्सुकता होती है वह रति कर्म है । ३. रति से विपरीत अरति कर्म है । ४. जिसके उदय से शोक उत्पन्न होता हो वह शोक कर्म है । ५. जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय कर्म है । ६. जिसके उदय से आत्मदोषों का संवरण और परदोषों का आविष्करण होता है वह जुगुप्सा कर्म है। (३) वेद कर्म का स्वरूप- १. स्त्रीवेद जिस कर्म के उदय से स्त्री संबंधी भावों को प्राप्त होता है वह स्त्री वेद है । योनि, कोमलता, भयशील होना, मुग्धपना, पुरुषार्थ शून्यता स्तन और पुरुष भोग की इच्छा ये स्त्रीवेदके सात लक्षण हैं। - २. पुरुष वेद - जिसके उदय से पुरुष सम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह पुरुष वेद है । लिंग, कठोरता, स्तब्धता, शौण्डीरता, दाढ़ी-मूंछ, जबर्दस्तपना और स्त्री भोग इच्छा ये सात पुंवेद के सूचक लक्षण हैं। I ३. नपुंसक वेद - जिस कर्म के उदय से नपुंसक संबंधी भावों को प्राप्त होता है वह नपुंसकवेद है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद के सूचक १४ चिह्न मिश्रित रूप में नपुंसकवेद के लक्षण हैं ॥ २६ ॥ २६. मिथ्यात्व वेद रागास्तथैव हास्यादयश्च षडदोषाः चत्वारश्व कषायाश्च चतुर्दशाभ्यंतरा ग्रन्थाः । २७. क्षेत्रवास्तु हिरण्य सुवर्ण धन-धान्य दासी दास कुप्य प्रमाणाति क्रमाः । अर्थ - खेत तथा रहने के घरों के प्रमाण का, चांदी और सोने के प्रमाण का, पशु ZÁSÁBÁKÁZÁS SAEKEKETEACALACASPALAUREATEELE धर्मानन्द श्रावकाचार २३४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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