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• "हिंसा की संभवता
संरंभादिक से गुने, योग कृतादि कषाय । अष्टाधिक शत भेद इम, हिंसा के दुःख दाय ॥ ५ ॥
अर्थ समरंभ समारंभ आरंभ ये तीन को मनोयोग, वचनयोग एवं
काययोग से गुणा करने पर ३ x ३ = ९ भेद होते हैं। पुनः इन नव भेदों को कृतकारित तथा अनुमोदना से गुणा करने पर ९ x ३ हिंसा के २७ भेद होते हैं । २७ भेदों को क्रोध - मान-माया एवं लोभ इन चार कषायों से गुणा करने पर २७ x ४ = १०८ भेद हिंसा के होते हैं। प्रत्येक प्राणी के लिये हिंसा दुःखदायक, कष्टदायक है।
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भावार्थ- कोई भी पाप रूप कार्य किया जाता है, उसमें समरंभ, समारंभ और आरम्भ ऐसे तीन भेद पड़ते हैं। किसी भी हिंसादि पापकार्य के संकल्प करने को उसके प्रयत्न के आवेश करने को समरंभ कहते हैं। उसी पाप कार्य के कारणों का संग्रह करना, साधन की सब सामग्री इकट्ठी करना समारंभ है और उस कार्य को प्रारंभ कर देना आरंभ है। जैसे किसी ने एक मकान बनाने का विचार किया, उसने संकल्प किया कि इस तरह का मकान बनवाऊँगा, उसमें इस प्रकार के कमरे आदि बनवाऊँगा इस प्रकार के संकल्प को समरंभ कहते हैं। समरंभ में किसी काम का बाह्य आरंभ नहीं होता केवल विचार या उस काम को करने का आवेश होता है।
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समरंभ के बाद उस मकान को बनवाने के लिये कारीगर ईंटे, चूना, पत्थर, कुदाली, फावड़ा आदि साधनों का संग्रह करना समारंभ है। समारंभ में भी काम का प्रारम्भ नहीं होता है, केवल कारण सामग्री इकट्ठी होती है । तदनन्तर उस विचारे हुए कार्य को प्रारम्भ कर देना जैसे - जिस मकान के बनाने का संकल्प किया था उसके लिये नींव भरना, दीवाल खड़ी करना आदि कार्यों का प्रारम्भ कर देना आरंभ है। इसी प्रकार सभी कार्यों के दृष्टान्त समझ
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धर्मानन्द श्रावकाचार २०६