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________________ 1 ASALÉKAS. INGANABACHUKUA - ZAKAEAEAEABASASABASASA! प्रेम प्रियत्वं प्रेम (धवला पु. १४) प्रियता का नाम प्रेम है। वासना एवं स्वार्थ से रहित धर्म धर्मात्माओं के प्रति जो पवित्र प्रेम होता है उसे वात्सल्य कहते हैं यहाँ पर वात्सल्य का ही पर्यायवाची यह प्रेम शब्द है । विविध आचार्यों के अनुसार इनका स्वरूप इस प्रकार जानना - १. दर्शनमोहनीय का उपशम होने से मन, वचन, काय के उद्धतपने के अभाव को भक्ति कहते हैं तथा उन गुणों के उत्कर्ष के लिये तत्पर मन को वात्सल्य कहते हैं। यही गुणी जनों पर प्रेम करना है। पं. ध. ३ / ४७० | २. चतुर्गति रूप संसार से तिरने के कारणभूत मुनि आर्थिकद प्रकार संघ में बछड़े में गाय की प्रीति की तरह प्रीति करना चाहिए । यही वात्सल्य गुण है। मूलाचार । 1 ३. धार्मिक लोगों पर और माता-पिता भ्राता के ऊपर यथोचित प्रेम रखना वात्सल्य है | भगवती आराधना । करूणा - दीन दुःखी जीवों पर प्रगट हुई दया भावना करूणा है। "दीनानुग्रह भावः कारुण्यम्” सर्वार्थसिद्धि | सर्व प्राणियों के ऊपर उनका दुःख देखकर अन्तःकरण आर्द्र होना दया का लक्षण है। (भगवती आराधना ) उपर्युक्त चारों ही प्रकार के परिणाम सम्यक्त्व के चिह्न है, धर्म रूपी वृक्ष की जड़ हैं, इत्यादि प्रकार उनके स्वरूप को समझकर उन गुणों को जीवन में साकार करना परम विवेक है ॥ ३३ ॥ ३३. सत्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ सदा ममात्माविदधातु देव ॥ ( द्वात्रिं . ) " अर्थ- हे प्रभो! आत्मकल्याण हेतु मैं सदैव यह भावना करता हूँ - समस्त संसार के प्राणियों में मित्रता सुहृदपने का भाव रहे। अर्थात् हर प्राणी को अपना प्रेम पात्र बनाऊँ । जो विशिष्ट गुणज्ञ हैं, विद्वान, त्यागी, साधु-महात्मा - सत्पुरूष आदि उनके प्रति प्रमोदआनन्दोत्पादक भावना युत रहूँ। जो बेचारे अशुभ कर्माधीन हो दारिद्र्यादि दुःखों से KANALASANZEZLANTEAEDASTURCANASABASABABAEACASASIER धर्मानन्द श्रावकाचार १९४
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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