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________________ KASANLESEASUNASASRAMusatasamasasanaSanaSasasaSEKASE जाता है। इस वाक्य से यह बात स्पष्ट होती है। चोरी नहीं करने पर भी चोरी भाव मन में आना भी चोरी है क्योंकि अपने प्राणों का, वहाँ भी संक्लेश भाव होने से घात होता है ॥ ३१॥ • परस्त्री के दोष व्यभिचारी से सब डरें, घर बाहर के लोग । वह कुकर्म फल यह चखे, पर भव भी दुख पाय ॥ ३२ ॥ ३१. १. यो हरति यस्य वित्तं स तस्य जीवस्य जीवितं हरति । आश्वासकर बाह्य प्राणा: जीवानां जीनिरं निरं ॥ १. अर्थ - जो निर्दयी, लोलुपी, वित्तषणा शमन के उद्देश्य से दूसरे के धन का अपहरण करता है, चुराता है वह उसके जीवन्त प्राणों का ही घात करता है। क्योकि आश्वास, उच्छासादि दश बाह्य प्राण हैं, जिसका धन है वह भी ग्यारहवां प्राण मान! जाता है, अतः प्राण हरण मृत्यु है। इसलिए प्राणीधात से अपनी रक्षा हेतु चोरी का त्याग करना चाहिए, चोरी के दोष बतलाकर आचार्य देव इस व्यसन के त्याग का उपदेश दे रहे हैं। सप्त व्यसनों में यह भी एक व्यसन है जो महानिंद्य दुख देने वाला त्यागने योग्य है। २. अर्थादौ प्रचुर प्रपंचरचनैर्य वंच्यन्तेपरान्, नूनं ते नरकं व्रजन्ति पुरत: पापी व्रजादन्यतः 1 प्राणा: प्राणिषु तन्निबंधनतया तिष्ठन्ति नष्टे घने, यावान् दुःखभरो नरेण मरणे तावानिह प्राप्यायशः ।। २ ।। धन प्राप्ति के लिए नाना प्रपंच मायाचारादि रचकर जो मनुष्य दूसरों को ठगते हैं, धोखा देते हैं वे निश्चय ही नरक में जाते हैं, प्रथम यहाँ नीच पापी कहलाता है। प्राण जीवों के जीवन के हेतु हैं, प्राण नाशे जीवन ही नष्ट हो जाता है, धन भी प्राणी का दश से भिन्न ११ वाँ प्राण माना गया है। अतः धनरूप प्राण के रहने पर मानव का जीवन रहता है उसके वियुक्त होने पर हरे जाने पर प्राण ही हरे गये यह स्वतः सिद्ध हो जाता है। इस धनवंचक को लोक पापी कहते हैं जीवन भर वह अपयश का पात्र ही रहता है। इसलिए निंध पाप का त्याग करना चाहिए ।। ३१ ।। SAMASusarSasasasanasasaramsasasarasamaasREARSA धर्मानन्द श्रावकाचार-१९१
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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