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XREATREEREDEExeegesatsuesasusarawasaseATAsanasamastisa • जगत मूलगुरमों का पानी ही यज्ञोपवीत ग्रहण की
योग्यता रखता है -
यज्ञोपवीती वही द्विज, योग्य मूलगुण होय । यावज्जीवन को तजे, थूल पाप सब थोक ॥ २४ ॥
अर्थ - उक्त प्रकार के आठ मूलगुणों का जो धारी है वहीं यज्ञोपवीत धारण करने की पात्रता रखता है। विशेषतः द्विजशब्द से ब्राह्मण वर्ग को तथा क्षत्रिय और वैश्य को भी उदाहरण के रूप में जानना चाहिए । जीवन पर्यन्त के लिये जो स्थूल पाप का त्याग करता है उसे ही व्रती कहते हैं, वहीं यज्ञोपवीती द्विज भी कहलाता है।
यही संदर्भवश यज्ञोपवीत का स्वरूप व महत्त्व भी उल्लेखनीय है -
१. आठवें वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम में अध्ययनार्थ प्रवेश करने वाले उस बालक के वक्ष स्थल पर सात तार का गूंथा हुआ यज्ञोपवीत होता है । यह यज्ञोपवीत सात परम स्थानों का सूचक है। यह कथन महापुराण ३८/११२ में श्लोक सहित है।
और भी - महापुराण पर्व २९ श्लोक ९२ एवं पर्व ४१ श्लोक ३१ में इसका विशेष कथन है -
श्लोकार्थ - तीन तार का जो यज्ञोपवीत है वह उसका (जैन श्रावक का) द्रव्य सूत्र है और हृदय में उत्पन्न रत्नत्रयात्मक गुण उसके भाव सूत्र हैं। विवाह
अर्थ - आँखों से अच्छी तरह देखकर भूमि पर पैर रखना चाहिए अर्थात् ईया समिति पूर्वक गमन करना चाहिए, कपड़े से छने हुए जल को पीना चाहिए।
सत्य वचन बोलना वचन की पवित्रता है - सत्य से पवित्र हुई वाणी बोलनी चाहिए मन से-हेय उपादेय का विचार कर योग्य आचरण करना चाहिए। ऐसा कथन हिन्दु पुराण में भी है ।। २३॥ XABRERAKARANAN ZAVARJUNAGARA UNAHARUKIRANA
धर्मानन्द प्रापजचार-२८१