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प्राक्कथन..
इस ग्रन्थ का नाम " धर्मानन्द श्रावकाचार" है। आनन्दकारी आत्मगुणों की पहचान कराने वाला यह महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। आर्ष परम्परा के अनुकूल सामग्री से युक्त होने से अतीन्द्रिय आत्म सुखों की ओर जीव को उन्मुख कराने वाला है इसलिए परमोपयोगी भी है। उपासकाध्ययनाम के विषय को सरल, सुगम भाषा में उपस्थित करने वाला होने से प्रामाणिक भी है।
भगवान् महावीर की मौलिक परम्परा का संवहन करने वाले वर्तमान युग में श्री कुन्दकुन्द स्वामी को आदि लेकर अनेक आचार्य हुए हैं। उनमें २० वीं शताब्दी के प्रथमाचार्य श्री १०८ मुनि कुञ्जर सम्राट श्री १०८ आदिसागरजी (अंकलीकर) के पट्टशिष्य तीर्थभक्त शिरोमणि, तपस्वी सम्राट, आचार्य महावीरकीर्ति जी महाराज ने भव्यजीवों के हितार्थ इस ग्रन्थ की रचना की है। अधिकांश जनता संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ है उन्हें भी श्रावक धर्म का स्वरूप अच्छी तरह समझ में आये इस भावना को लेकर संभवतः यह रचित है। इसके छन्द (दोहे) बहुत सरल हैं किन्तु गंभीर अर्थ को प्रगट करने वाले हैं, अतः गागर में सागर की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हैं। तत् पट्टशिष्य आचार्य श्री १०८ तपस्वी सम्राट सन्मतिसागरजी महाराज की प्रेरणा एवं प्रयास से इसका प्रकाशन हुआ है। जो मोक्षमार्ग से विमुख हैं उन्हें मोक्षमार्गी बनाना, रत्नत्रय की उत्पत्ति फलोत्पत्ति का उपाय बताना इस रचना का प्रधान उद्देश्य है । सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रमाण और नय पर आधारित है क्योंकि प्रारंभ से अन्त तक नय दृष्टि से विषय प्रतिपादित है।
● धर्मानन्द श्रावकाचार के आधारभूत ग्रन्थ
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, वसुनन्दी श्रावकाचार, भावपाहुड़, पद्मनन्दी पंच विंशतिका, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, भगवती अड्डाधना आदि आर्य प्रणीत ग्रन्थों को आधार बनाकर इस ग्रन्थ को लिखा गया है।
• विषय परिचय -
प्रथम अध्याय - इसमें धर्मानन्द ग्रन्थ की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए
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