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________________ SUNNERSARAMARIBRAREERANAKAssasurTATTREEKERRIERSamacx • विपरीत फलदायी हिंसा एक आहेसा कर्म भो, हिंसा फल को देय । हिंसा भी किसी एक को, अहिंसा रूप फलेय ॥१४॥ अर्थ - किसी की अहिंसा भी हिंसा फल को देती है और किसी की हिंसा ...परिणामों में उसके प्रति तीव्र कषाय है, दूसरे में बहुत अल्प रोष है। यहां पर एक जैसी भी द्रव्य हिंसा फलकाल में भिन्न-भिन्न फल देती है अर्थात् फल भावहिंसा के अनुसार होता है। १२. प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । आरम्भ कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥ ५४ पुरुषा. ॥ अर्थ - कोई हिंसा होने के पहले ही फल दे देती है और कोई हिंसा द्रव्य हिंसा हो चुकने पर फल देती है। कोई हिंसा, हिंसा करना प्रारम्भ होने पर फलती है कोई हिंसा द्रव्य हिसा करते हुए ही फल दे देती है। इत्यादि प्रकार जो भी कथन है उसमें सारांश यह है कि हिंसा कषाय भावों के अनुसार फलती है। १३. एकः करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलभुम्भवत्येकः ॥ ५५॥ पुरुषा. ॥ श्लोकार्थ - (क) द्रव्य हिंसा को तो एक करता है किन्तु फल भोगने के भागी बहुत होते हैं। यथा - कहीं बाजार में एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को मार रहा है और दस खड़े तमाशा देख रहे हैं और देख-देखकर खुश होते हैं - यहाँ द्रव्यहिंसा एक कर रहा है किन्तु कर्म बन्ध पूर्वक फल सबके होगा - इस प्रकार हिंसा की एक ने और फल भोगा अनेक ने। (ख) कहीं द्रव्य हिंसा तो बहुत मिलकर करते हैं पर हिंसा के फल का भोकता एक ही होता है। उदाहरण - एक राजा ने अपने चार-पांच सिपाहियों को किसी को मारने का हुक्म दिया, सिपाहियों का भाव उसे मारने का नहीं था किन्तु मालिक की आज्ञावश मारना पड़ा तो वहाँ द्रव्यहिंसा तो अनेकों ने की किन्तु उसका फल एक मालिक को भोगना पड़ेगा। इत्यादि। ANANASZKUALA KAHASA BARANASAN ARANASANASA धर्मानन्द श्रापकाचार.१२९
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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