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________________ SUBREARSLSAERTsuesamaskaiteRBANIMATASEASumaegeeasamasur • "बली" दान निषेध देवतार्थ बलिदान में, हिंसा कभी न होय। क्या ऐसा कभी कह सके, अहिंसा धर्मी लोग ।। १७॥ अर्थ - जो ऐसा मानते हैं कि देव पूजा के लिए पशुओं की बलि आदि चहारे में हिंसा नहीं है उस मत का खण्डन करते हा आचार्य कहते हैं कि धर्मात्मा व्यक्ति धर्म के मर्म को जानने वाला होता है। वह समझता है कि न तो हिंसा में धर्म है और न हिंसा से कोई देव प्रसन्न होता है। जिससे किसी प्राणी को कष्ट पहुंचे, उन कार्यों से देव कभी प्रसन्न होता नहीं। भावार्थ - यहाँ पर परमत का खण्डन किया है। कुछ चार्वाक आदि मत . वाले ऐसा मानते हैं कि धर्म देवताओं से उत्पन्न होता है इसलिए लोक में उनके लिये बलि आदि देने में बकरे आदि की हत्या करने में दोष नहीं है ऐसी अविवेक युक्त मान्यता का खण्डन करते हुए आचार्य कहते हैं कि धर्म के निमित्त की गई हिंसा भी हिंसा रूप फल को ही देती है। जीव दया का अभाव होने से वहाँ उसके भाव हिंसा भी है और द्रव्य हिंसा भी अतः धर्म के नाम पर की गई हिंसा भी दुःख की वृद्धि ही करेगी, पतन का ही कारण बनेगी ॥ १७ ॥ १६, देवातिथि मंत्रौषधि पित्रादि निमित्ततोपि सम्पन्ना। ___ हिंसाधत्ते तरके किं पुनरिहनान्यथा विहिता॥ अर्थ - देव, अतिथि, मंत्र, औषधि, पिता आदि के निमित्त से जो हिंसा की जाती है वह भी हिंसा ही है फिर अन्य की क्या कथा? ॥१६॥ १७. "आगमप्रामाण्यात् प्राणिबधो धर्महेतुरिति चेत् न, तस्यागमत्वासिद्धेः ॥ १३ ॥ प्रश्न - आगम प्रमाण से वाणी वध भी धर्म समझा जाता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि ऐसे आगम को आगमपना ही सिद्ध नहीं है। और भी-... A$AHANKITTSBUSCHAUVANĀS SASANAYASAWACHSaDash धर्मानन्द यायकाचार-~१३२
SR No.090137
Book TitleDharmanand Shravakachar
Original Sutra AuthorMahavirkirti Acharya
AuthorVijayamati Mata
PublisherSakal Digambar Jain Samaj Udaipur
Publication Year
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Spiritual, & Principle
File Size6 MB
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