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________________ —२. ४२ ] - अभयदानादिफलम् 99 ) इत्थं कदर्थनमनेकविधं सहन्ते - 4 यन्नारका नरककूपकमध्यमग्नाः । कालं प्रभूर्तमतिमात्रंमनन्तरालं हिंसाफलं तदखिलं खलु खेलतीह ॥ ३९ 100) इन्द्रमहर्द्धिकमरुतां' मरुतो ऽपि हि वाहनादिविनियोगात् । यन्मनसा तप्यन्ते तदपि च निःशुकतास्फुरितम् ॥ ४० 101) जन्तूपघातर्जनितोत्कटपातकस्य मत्वा कटुप्रकटमत्रं विपाकमेनः । भव्या भवन्तुं भवसंभवदुःख भीताः प्राणिप्रबन्धंपरिरक्षणबद्धकक्षाः ॥ ४१ 102) जीवा ये यत्रे जायन्ते रमन्ते तत्रं ते यथा । निम्बकीय निम्बे sपि रतिर्जगति गीयते ॥ ४२ ३३ शिलातल पर पटका जाता है, तथा नाना प्रकार के कोल्हुओं में ईख के समान पेरा जाता है। इस प्रकार से यहाँ नरकरूप कुएँ के मध्य में डूबे हुए वे नारकी जीव जो अनेक प्रकार की पीडा को निरन्तर दीर्घकाल तक - अनेक सागरोपम काल तक -सहन किया करते हैं, वह सब हिंसा का फल खेलता है; ऐसा समझना चाहिये || ३७ - ३९॥ इन्द्र और महाऋद्धिधारक सामानिक त्रायस्त्रिशादिकों के जो अभियोग्य आदि वाहन देव होते हैं वे वाहन आदि बनने के नियोग से जो मन में संतप्त हुआ करते हैं, वह भी उस निर्दयता की ही महिमा है । तात्पर्य - संक्लेश परिणामों से जो हीन देवगति की प्राप्ति होती है। तथा जिससे श्रेष्ठ देवों के वाहन देव बनना पडता है, इसे पूर्व में किये गये क्रूरतापूर्ण व्यवहार का फल समझना चाहिये ॥ ४० ॥ प्राणियों का विघात करने से जो तीव्र पापबन्ध होता है उसके इस प्रत्यक्ष कटु पाप फल को जानकर भावी सांसारिक दुःख से भयभीत हुए भव्य जीवों को प्राणियों के समूह के रक्षण में कटिबद्ध होना चाहिये ॥ ४१ ॥ जो जीव जहाँ उत्पन्न होते हैं, वे वहीं पर रममाण होते हैं। ठीक है --नीम के कीडे को नीम में ही प्रीति होती है, ऐसा लोक में माना जाता है ॥ ४२ ॥ ३९) 1 पीडनम्. 2 प्रचुरम् 3 प्रमाणरहितम्. 4 अन्तरालरहितम् 5 क्रीडति । ४० ) 1 इन्द्र महद्धिकदेवानाम्. 2 हीनदेवा: 3 निर्दयतायाः । ४१ ) 1 जीवधातोत्पन्नम् . 2 लोके. 3 उदयम्. 4 पापम्. 5 D 'भवन्नभव. 6 संबन्ध: 7 कृतप्रतिज्ञाः भवन्तु । ४२ ) 1 यस्यां गतो. 2 योन्यादौ. 3 कथ्यते । ५
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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