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- धर्मरत्नाकरः -
[२. ३५95) दोहाङ्कादयताडनाप्रभृतिभिः शीतातपायैस्तथा
क्षुत्तृष्णादिनिरोधनैर्गुरुरुजाभारातिरोपैरपि । तिर्यश्चो ऽप्रतिकारिणः परवशात् दुःखं सहन्ते हि यत्
तत्तन्निर्दयतानदोतटतरुच्छायाश्रयसर्जितम् ॥ ३५ 96) अविज्ञातप्रतीकाराः सतां कारुण्यगोचराः ।
चिरं प्राणन्ति रोगाः प्राणिघाताद्वनेचराः ॥३६ 97) प्रपाय्यन्ते तप्तं कलिलसलिलं हृदहदहो
प्रखाद्यन्ते मांसं निजतनुसमुत्थं सुविरसम् । विपाट्यन्ते चित्रनिशितकरपत्रैरकरुणं
प्रशाय्यन्ते शय्यां प्रति दहनहेतिप्रतिभयाम् ॥ ३७ 98) कुम्भीपाके विपाच्यन्ते प्रस्फाल्यन्ते शिलातले ।
पीड्यन्ते चित्रयन्त्रेषु परतन्त्रा यथेक्षवः॥ ३८ के प्रसाद से मिलते हैं तथा अकल्याणों की माला-अनेक प्रकार के दुख-हिसारूपी व्याघ्री के आश्रय से प्राप्त होते हैं ।। ३४॥
दूध निकालने, शरीर को दागने व निर्दयतापूर्वक मारने आदि से, ठंड व गर्मी आदि से, भूख व प्यास आदि के रोकने से-समय पर खाना-पीना न देने से, तीव्र रोग से तथा अत्यधिक बोझा लादने से भी तिर्यंचों को जो प्रतिकार रहित दुःख परवशता के कारण सहन करना पडता है, वह सब निर्दयता रूपी नदी के तटवर्ती वृक्ष की छाया के आश्रय के लेने का प्रभाव है ॥ ३५ ॥
- वन में रहनेवाले भील आदि प्राणियों का घात करने के कारण रोग से पीडित हो कर उसके परिहार के उपाय को न जानते हुए दीर्घ काल तक उस रोग की वेदना को सहते है व जीवित रहते हैं। उनकी वेदना को देखकर सज्जनों को उनके ऊपर दया आती है ॥ ३६॥
- नरक में नारकियों को हृदय में दाह उत्पन्न करनेवाला तपा हुआ गहन (ताँबे का) पानी पिलाया जाता है, अतिशय दूषित स्वादवाला अपने ही शरीर का माँस खिलाया जाता है, उनका अंग नाना प्रकार के तीक्ष्ण करोतों से निर्दयता पूर्वक विदीर्ण किया जाता है, अग्नि ज्वालाओं से घिरी हयी शय्यापर सुलाया जाता है, उन्हें कुम्भीपाक में पकाया जाता है,
३५) 1 फालादिचिह्न कर्णादिच्छेदनम्. 2 उपायरहिताः.3 विपाक: उदयः । ३६) 1 अज्ञातोपाया:. 2 जीवन्ति. 3 रोगेन पीडिताः. 4 भिल्लाः श्वापदा वा । ३७) 1 पानं कार्यन्ते. 2 अशुद्धम्. 3 P°विपाद्यन्ते. 4 शयनं कार्यन्ते. 5 आयसपुत्तलिका । ३८) 1 पराधीनाः नारकाः.2 इक्ष दण्डाः।