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________________ -२. ३४ ] - अभयदानादिफलम् - 91) वैधव्यं' कुचकुम्भरम्यरमणीवर्गे हि यज्जायते दौर्भाग्यं प्रणते विपन्नरुपमे मृत्युस्तथा यौवने 1 यन्नार्या अनपत्यता' यदपरं जाता म्रियन्ते प्रजा - स्तद्धिंसाविषवल्लि संनिर्धिवशाद्विश्रामविस्फूर्जितम् " ॥ ३१ 92) पत्यो नित्यं यद्वियोगं लभन्ते लोकालोक्यं यच्च रार्टि कुटुम्बात् । यत्सापत्न्यं यान्ति रामाः सुदुःखं हिंसादेव्याराधनं तत्प्रसन्नम् ॥ ३२ 93) रूपभङ्गमुपयान्ति विचित्रं रोगरार्जजनितापतेर्यत् । 3 यज्जना जगति यान्ति च निन्दां निर्दयत्वसुहृदोपकृतं तत् ॥ ३३ 94 ) सर्वा कल्याणमालेयं दया देवीप्रसादतः । तथाकल्याणमालापि हिंसाव्याघ्रीसमाश्रयात् ॥ ३४ ३१ की पीडा से व्याकुल तथा ' हमें कुछ दो' इस प्रकार के दीन वचन को कह कर हाथ को फैलानेवाले प्राणी देखे जाते हैं; यह सब निश्चय से हिंसारूप वृक्ष का पुष्प है । इसका अपूर्व फल तो उन्हें आगे प्राप्त होगा ।। ३० ।। स्तनकलशों से सुन्दर दीखनेवाली स्त्रियों के समूह में जो वैधव्य प्राप्त होता है, नम्र मनुष्य में जो दारिद्र्य दिखता है, उपमारहित ( सज्जन ) पुरुष में जो विपत्ति दिखती है, तारुण्य में जो किसीको मरणावस्था प्राप्त होती है, तथा स्त्रीके जो सन्ततिहीनता होती है अथवा सन्तान के उत्पन्न होने पर भी जो उसका मरण हो जाता है; यह सब प्रभाव हिंसारूपी विषवल्ली के पास जा कर कुछ समय के लिये विश्राम करने का है ।। ३१ ॥ स्त्रियाँ जो पति के साथ निरन्तर वियोग के कष्ट को प्राप्त होती है, किसी के घर जो कुटुम्ब से नित्य कलह होता हुआ दिखता है, तथा स्त्रियाँ जो सौत के निमित्त से होने वाले दुख को प्राप्त होती हैं; यह सब हिंसा देवी की आराधना का फल है ॥ ३२ ॥ देह में रोगराज से - प्रबल व्याधि के प्रभाव से उत्पन्न हुए अपकार से जो मनुष्यों के रूप का विनाश होता है अर्थात् उदुंबर कुष्ठादिक रोग के कारण अवयवों के गल जाने से जो अनेक प्रकार से रूप का बिगाड होता है, तथा जगत में जो लोगों की निन्दा होती है; उस सब को निर्दयपनारूप मित्र का उपकार समझना चाहिये ।। ३३ । यह सब कल्याण माला अर्थात् धन-धान्य, व स्त्रीपुत्रादिकों के सुख दयारूपी देवती ३१) 1 रण्डत्वम्. 2 नमस्कारे. 3 आपत्. 4 मनोज्ञे. 5 स्त्रिय:. 6 पुत्ररहिताः. 7 पुत्राः. 8 निकटिता. 9 P °धिमनाग्वि. 10 विलम्बितविस्फूरणम् । ३२ ) 1 भर्त्रा 2 सर्वलोकविद्यमानम्. 3 सफलम् । ३३ ) 1 क्षय. 2 छेदनात्. 3 मित्रेण. 4 उपकारम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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