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- धर्मरत्नाकरः
[२. २६86) मुक्ता विमुक्तिसुखसागरसंनिमग्नाः
संसारिसत्त्वनिचयो विषयो ऽस्य सो ऽपि । संभिद्यते ऽचरचरंपविभागतस्तु
पृथ्वीजलज्वलनवातवनस्पतीति ॥ २६ 87) अचरश्चरित्रनिलयैः पञ्चविधो ऽयं जिनैर्गणो ऽवादि ।
द्वित्रिचतुःपञ्चकरणनाम्ना तु चरः समाम्नातः ॥ २७ । युग्मम् । 88) जीवस्थानैर्गुणस्थानैस्तथा संज्ञोपयोगतः ।
मार्गणाप्राणपर्याप्तिभेदैर्जीवा अनेकधा ॥२८ 89) जीवराशिरिति प्रोक्तः पालनीयः प्रयत्नतः ।
सुदृशा वापरेणापि सर्वदा निजजीववत् ॥ २९ 90) प्रेष्या दारुणदुःखदूनमनसों दना दरिद्रास्तथा
मूकान्धा बधिरा नरा बहुविधव्याधिव्यथाविह्वलाः । देहीति प्रगिरः प्रसारितकरा एवंविधा यद् ध्रुवं
तद्धिंसाद्रुमपुष्पमेतदपरं प्राप्स्यन्त्यपूर्व फलम् ॥ ३० जैसा कि आलस्य से या कृपणपने से भय के देने पर होता है । इससे निश्चयतः उसका नरक में पतन होता है । इस लिये स्वहित में तत्पर रहनेवाले भव्य जीवों को सर्व कुभावों को छोडकर प्राणियों के लिये अभयदान देने में प्रयत्नशील रहना चाहिये ॥ २५ ॥
___मुक्त जीव मोक्ष सुख के समुद्र में निमग्न हो चुके हैं-उन्हें इस अभयदान की आवश्यकता नहीं रही है। जो संसारी प्राणियों का समूह इस अभयदान का विषय है उसके अचर (स्थावर) और चर (स) ऐसे दो भेद हैं। उनमें चारित्र के स्थानभूत जिनदेव ने पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति इस पाँच प्रकार के प्राणिसमूह को अचर तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय प्राणियों को नाम से चर माना है ।। २६-२७ ।।
जीवसमास, गुणस्थान, आहारादि संज्ञाएँ, उपयोग, गत्यादिक मार्गणाएँ, प्राण और पर्याप्ति इन भेदों से जीव अनेक प्रकार के हैं ॥ २८ ॥
___ इस प्रकार से जो यह जीवराशि कही गई है उसका संरक्षण सम्यग्दृष्टि तथा इतर को-मिथ्यादृष्टि को भी अपने ही जीवन के समान सदा करना चाहिये ।। २९ ॥
भयंकर दुःख से दुःखित मनवाले जो दीन, दरिद्री, गूंगे, अन्धे, बहरे, अनेक व्याधियों २६)1 संसारस्य [ अभयस्य ]. 2 सोऽपि संसारिसत्त्वनिचयः. 3 भेदवान् भवति. 4 स्थावरत्रस. 5 अचर: स्थावरः । २७) 1 स्थावर:. 2 ऊचे. 3 द्वीन्द्रियादय:. 4 कथितः । २८) 1 बहप्रकाराः कथिताः। २९) 1 सम्यग्दृष्टिना। ३०)1 PD°प्रेक्ष्या, किङकरा:. 2 पोडितचिताः. 3 भिक्षुकाः. 4 अवाङमनोगोचरम् . 5नारकम् ।