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________________ २२ -२. २५] - अभयदानादिफलम् - 83) हीनाष्टादशदोषतो न हि परो देवो न पुण्याद्वितं ज्ञानाभ्यासमते तपो न हि परो नाराधनीयो गुरोः । नैर्ग्रन्थ्यान्न परं सुखं न सुखतो ऽभीष्टं परं प्राणिनां जीवानां परिपालनान्न च परो धर्मो जगत्यों मतः ॥ २३ 84) ज्ञानं विश्राणयन्ते सुकृतवसतयों गृह्णते तादृशा ये भैषज्याहारपात्रं तपसि परिणताः क्लिष्टदीना दरिद्राः। दानस्यान्यस्य चान्ये कतिपयमनुजाः कल्पितस्यातिलुब्धैः पात्रं स्याज्जीवलोको ऽप्य भयवितरितुर्वर्ण्यते ऽतः किमन्यत् ॥२४ 85) आहारादावलसकृपणत्वेन वा दीयमाने दुःखं तादृग् न भवति तथा दीयमाने भये ऽस्मिन् । पातो नूनं नरककुहरे तेन जोवैरजस्रं यत्यं भव्यैः स्वहितनिरतैः प्रास्य सर्वान् कुभावान् ॥ २५ रूप अजय्य चार प्रकार की सेना; सर्व कुटुम्बी जन, योग्य भोग, तथा शय्या, भवन व आसन आदि को जीवित के बिना शव (मुर्दा) को अलंकारों से सजाने के समान व्यर्थ समझना चाहिये ॥ २२॥ ___जो अठारह दोषों से रहित है वही देव होता है, उसको छोड कर अन्य देव नहीं हो सकता है, पुण्य के बिना अन्य कोई हितकर नहीं है, ज्ञानाभ्यास को छोडकर अन्य कोई तप नहीं है, गुरु को छोड कर अन्य कोई आराधनीय नहीं है, पूर्ण निर्ग्रन्थावस्था अर्थात् पूर्ण परि. ग्रह से रहितावस्था को छोडकर अन्य कोई सुख नहीं है, सुख को छोडकर प्राणियों को अन्य कोई अभीष्ट नहीं है तथा जीवों के परिपालन को छोड कर जगत् में अन्य कोई धर्म सम्भव नहीं है ॥ २३ ॥ पुण्य के निवासस्थानभूत पुरुष ज्ञानदान करते हैं और वैसे ही-पुण्यशाली-पुरुष उसको ग्रहण करते हैं । जो ऋषि तपश्चर्या में तत्पर हैं वे औषधदान और आहारदान के पात्र हैं तथा क्लेश को प्राप्त व दीन-दरिद्री लोग भी आहार व औषधदान के पात्र होते हैं । अतिशय लोभी जन के द्वारा कल्पित अन्य दानके-भूमि आदि के दान के-पात्र अन्य कितने ही मनुष्य होते हैं । परंतु जो अभयदान देनेवाला है उसके लिये सर्व ही जीव लोक पात्र होता है। अर्थात् वह सब के लिये अभयदान दिया करता है । इससे अधिक और क्या कहा जाय? ॥२४॥ आलस्य से अथवा कृपणपने से आहारदान के देने पर जीव को वैसा दुःख नहीं होगा २३) 1 विना. 2 गुरोः सकाशादपरो नाराधनीयः 3 D 'नैर्ग्रन्थात . 4 जगति. 5 प्रोक्तः । २४) 1 प्रयच्छन्ति, दापयन्ति. 2 पुण्यनिवासा: 3 भैषज्याहारयोग्या भवन्ति.4 सुवर्णादिदानस्य. 5 रचितस्य. 6 योग्या भवन्ति. 7 दातुः.8 अभयदानं विना। २५)1P°यथा.2 भये दत्ते सति. 3 भयेन. 4निरन्तरम्.5 यत्नः कर्तव्य :
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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