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- धर्मरत्नाकरः -
[२. २०79) प्राणितव्यमपहाय नापरं प्राणिनां जगति यन्मतं ततः ।
अष्टमूलगुणराज्यभोजनद्वादशव्रतविधिस्तदर्थकः ॥ २० 80) दत्ते साक्षाज्जीविते किं न दत्तं तत्रापास्ते किं न वापास्तमत्र ।
भार्यापुत्रान् स्वान् प्रियान् जीवितार्थी विक्रीणीते यत्ततोऽस्तान्यभीतिः॥२१ 81) उक्तं च
वृणीष्वैकतर देवैस्त्रैलोक्यप्राणितव्ययोः ।
इत्युक्ते त्रिजगल्लाति को विमुच्य स्वजीवितम् ॥ २१* १ 82) राज्यं प्राज्यं रुचिररमणी रत्नकोशो धरित्री
सेनाजय्या चतुरवयवां ज्ञातिवर्गः समग्रः। भोगा योग्याः शयनभवनान्यासनाद्यन्यदेतत्
व्यर्थ सर्व शववपुरलंकारवज्जीवहीनम् ॥ २२ विशिष्ट रूप को देखने लगे, यदि पङगु (लंगडा) पुरुष अतिशय उत्तम चाल से पृथ्वी पर दौडने लग जावे तथा यदि बहरा मनुष्य बोले जानेवाले अक्षरों को अतिशय सुनने भी लग जावे तो प्राणियों के रक्षण रूप आचरण से रहित प्रवृत्ति को भी धर्म माना जा सकता है ॥ १९॥
चूंकि लोक में अपने जीवित को छोड कर प्राणियों को अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है, अतएव अष्ट मूलगुण, रात्रिभोजनत्याग और पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षावत ये बारह व्रत भी प्राणियों के जीवित के लिये उपयोगी कहे हैं ॥ २० ॥
इस जगत में जिसने साक्षात् जीवित को दिया है उसने क्या नहीं दिया? अर्थात् उसने सभी कुछ दिया है । तथा जिसने उस जीवित को छीन लिया है उसने क्या नहीं छीन लिया? अर्थात् उसने सब ही धनधान्यादिक को छीन लिया है ऐसा समझना चाहिये । कारण कि अपने जीवित की रक्षा के लिये मनुष्य अपनी प्रिय पत्नी और पुत्रादिक को भी दूसरों के लिये निर्भय हो कर बेच देता है ॥२१॥
कहा भी है- तीनों लोक और जीवित इन दोनों में से किसी एक को मांग लो, ऐसा देवों के द्वारा कहे जाने पर कौन ऐसा मनुष्य है जो अपने जीवित को छोडकर तीनों लोकों को ग्रहण करेगा? तात्पर्य यह कि प्राणी को अपना जीवन तीन लोक के राज्य से भी अधिक प्रिय है ॥२१*१॥
उत्कृष्ट राज्य, सुंदर स्त्री, रत्नों का खजाना, पृथ्वी, हाथी, घोडा, रथ और पदाति
२०) 1 जीवितव्यम्. 2 दूरीकृत्य. 3 हितं इष्टम्. 4 तस्याः जीवदयाया: प्रयोजनार्थम् । २१) 1 जीवितव्ये निराकृते. 2 जीवराशौ जगति वा. 3 स्वकीयान् . 4 गतान्यभयः । २१२१) 1 स्वकीयजीवितं विक्रीय त्रिलोकं नय. 2 एकम् . 3 गृह्णाति । २२) 1 प्रधानम्. 2 अङगा।