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________________ अभयदानादिफलम् 75) न दृष्टिहीनं ' वदनं विराजते विलासिवृन्दं न विभूतिवर्जितम् । विलासिनी रूपविला सदूरिता यथा न धर्मो न तथा दयां विना ॥ १६ -२. १९ ] - - 4 76) पितृपरिपन्थी' पुत्रः कुलपुत्री परगृहाटनसवित्री । धर्मोदयहीणः प्रहीणधर्माः स्तुवन्त्येतान् ॥ १७ 77) विनयविकलान् संख्यातीतान्' विनेयजनान्' न हि न हि कृतधियस्तत्त्वाख्यानप्रहीणमतीन् यतीन् । मतिमपि न वा श्रेयोबन्धप्रसिद्धिपराङ्मुखीं न च करुणयापास्तं धर्म स्तुवन्ति कथंचन । १८ 78) ब्रूते मूकः श्रवणसुखदं वीक्षते ऽन्धो ऽपि रूपं पंगुः प्रौढ चतुरचरणं धावते चेद्धरित्र्याम् । . एडो बाढं * यदि च शृणुयादुच्यमानाक्षराणि प्राणित्राणाचरणरहितस्तर्हि धर्मो ऽपि च स्यात् ॥ १९ २७ पर्याय का सार पुरुषार्थ और उस पुरुषार्थं का सार निश्चय से धर्म है व उस धर्म में भी संपूर्ण संपदाओं के साथ रहनेवाली विशाल दया सार मानी गई है ।। १५ । जिस प्रकार नेत्रों के बिना मुख सम्पत्ति के बिना विलासी जन का समूह और सौन्दर्य से विहीन विलासिनी - नेत्र, मुख एवं भृकुटियों आदिकी विशेषता से संयुक्त स्त्रीशोभायमान नहीं होती है । उसी प्रकार दया के बिना धर्म भी शोभायमान नहीं होता है ॥ १६ ॥ पिता की आज्ञा के प्रतिकूल चलनेवाला पुत्र, दूसरों के घर पर पर्यटन की जनकसदा वहाँ जानेवाली - कुलीन पुत्री और दया से रहित धर्म इनकी वे ही प्रशंसा किया करते हैं, जो स्वयं धर्म से दूर - दुराचारी - हैं ॥ १७ ॥ विवेकी विद्वान् विनय से रहित असंख्यात शिष्यों की, यथार्थ वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाली बुद्धि से विहीन मुनियों की, पुण्यबंध की प्रसिद्धि से पराङमुख - पापबंध को सिद्ध करनेवाली - बुद्धि की और दया से रहित धर्म की किसी प्रकार से भी प्रशंसा नहीं किया करते हैं ॥ १८ ॥ यदि गूँगा मनुष्य कानों को सुख देनेवाला भाषण करने लगे, यदि अन्धा मनुष्य १६ ) 1 अवलोकनरहितम् 2P नयनं 3 कामुकसमूहम् । १७ ) 1 शत्रुर्निन्दको वा अभक्तो वा. 2 उत्पन्नजननी भूमिर्वा. 3 पापिनः 4 पुत्रादीन् । १८ ) 1 बहूनपि 2 शिष्यजनान्. 3पुण्यवन्तः पुरुषाः कृतधियः न स्तुवन्ति. 4 पुण्यं वा मोक्षो वा. 5 P ° प्रसिद्ध 6 रहितम् । १९ ) 1 विशिष्टरूपम् 2D प्रौढश्च 3 बधिरः, 4 अतिशयेन. 5 शृणोति ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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