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- धर्मरत्नाकरः
[२. १२71) दयया भवति समस्तं सफलं दानादि पूर्वनिर्दिष्टम । ___दृष्टये बोधतपसी विद्धा इव धातवो रसेन ॥ १२ 72) चिरायुष्यं रूपं तरुणरमणीनेत्रसुभगं
विभोगाः साभोगा गुरुरिव जगज्जीवशरणः । रणे वारण्ये वा यमभयविधायिन्यपभयो
भयंत्यागाद्भावी निरवधिसुखैकान्तवसतिः ॥१३ 73) धर्मस्य जीवितमिदं च रहस्यमेतत्'
सर्वस्वमप्युपचयो ऽचलवासभूमिः । आचन्द्रसूर्यसितशासनमेतदेव
मागल्यकोटिसमलंकृतजन्मलग्नम् ॥ १४ 74) जन्मसु सारं नृत्वं पुरुषार्थस्तत्र तत्र ननु धर्मः।
तस्मिन् दया विशाला सकलश्रीसहचरी सारा ॥ १५
उपर्युक्त श्लोकों में जिन दानादि धर्मकर्मों का वर्णन किया गया है वे यदि दया के साथ किये जाते हैं तो सब ही वे सर्व सफल होते हैं । जैसे-सम्यग्दर्शन के साथ ज्ञान व तपश्चरण तथा रसायन से वेधी गयी लोह आदि धातुएँ सफल हुआ करती हैं ॥ १२ ॥
जिसने प्राणियों को अभयदान दे कर उन्हें निर्भय किया है उसे दीर्घ आयुष्य, युवान स्त्री के नेत्रों को लुभानेवाला सौन्दर्य तथा इन्द्रियों को तृप्त करनेवाले विपुल विशिष्ट भोग भी प्राप्त होते हैं। वह गुरु-माता-पिता के समान जगत् के जीवों का रक्षण करता है । यम के भयको-मृत्युकी आशंकाको-उत्पन्न करनेवाले युद्ध में अथवा वन में भी निर्भय रहता है तथा भय से रहित हो जाने के कारण वह भविष्य में अमर्याद सुखोंका-मुक्ति सुखों का-एकान्त स्थान होता है ॥ १३ ॥
- यह अभयदान धर्म का जीवित व रहस्य अर्थात् धर्म का निचोड व उसका सर्वस्व है। अर्थात् अभयदान देने से ही धर्म का पूर्ण आचरण होता है । इससे धर्म की वृद्धि होती है। यह अभयदान निश्चल वसति की-मोक्ष की-आधार भूमि है। जब तक जगत में चन्द्र-सर्य हैं तब तक रहनेवाला धर्म का यह शुभ्र शासन है, और यही अभयदान करोडों मंगलों से अलंकृत हुआ धर्म का जन्मलग्न है ॥ १४ ।।
देव, नारकी और पशु आदि जन्मों में-पर्यायों में-मनुष्यपना सार है, उस मनुष्य
१२) 1 सम्यग्दर्शनेन. 2 ज्ञानतपसी द्वे । १३) 1 सविस्तारा:. 2 यमकृते भये. 3 भयरहितः. 4 अभयदानात . 5 भविता. 6 निरवधिसुखैकवासः । १४) 1 अभयदानम् . 2 लक्ष्मीसमूहम्. 3 आज्ञा. 4 अभयदानम् । १५) 1 नत्वे. 2 पुरुषार्थे. 3 धर्मे. 4 सखी. 5 समीचीना।