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________________ -१. ५७] - पुण्यपापफलवर्णनम् - 57) पुण्यापुण्यद्रुमफलमलं सम्यगालोचयन्तः कर्तुं योग्यं ह्यहितमथनं पुण्यमेव प्रवीणाः । यत्कल्याणैः प्रभुतममिदं संगम संविधातुं तद् भो भव्या दुरितंसुरतिस्त्यज्यतां नीतिहन्त्री ॥ ५७ इति श्री-जयसेन-मुनि-विरचिते धर्मरत्नाकरनामशास्त्रे पुण्यपापफलवर्णनप्रकाशकः प्रथमो ऽवसरः ॥१॥ पुण्यवृक्ष के फल की और पापवृक्ष के फल की मन में अतिशय भलीभाँति आलोचना करते हुये प्रवीण पुरुष अहित को नष्ट करने वाले उस पुण्य को ही करने योग्य समझते हैं यह पुण्य गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और मोक्षरूप पाँच कल्याणों का संगम करने में पूर्णतया समर्थ है। अतएव हे भव्यजन, आप नीतिका नाश करनेवाली पाप की प्रीति छोड दें ॥ ५७ ।। इस प्रकार जयसेन मुनिविरचित धर्मरत्नाकर नामक शास्त्र में पुण्य-पाप फलोंका वर्णन करनेवाला प्रथम अवसर समाप्त हुआ है ॥ १ ॥ ५७) 1 पश्यन्तः सन्तः . 2 कर्तुम्. 3 तस्मात्. 4 पापेषु सुष्ठ रतिः . 5 त्यजनीयम् । 6 P only प्रथमोवसरः।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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