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________________ [१.५४ - धर्मरत्नाकरः - 54) यद्देवकोटिमुकुटार्चितपादपद्मो देवीभिरप्यहरहः समुपासितश्च । शारीरमानससुखं स्वदते धुनाथ स्तत्सर्वमङ्कुरितमुत्तमधर्मबीजात् ॥५४ 55) ईर्ष्याविषादमदमत्सरमानहीनं सर्वार्थसिद्धिमरुतो' ऽनुभवन्ति सोख्यम् । यत्सर्वथाप्युपमया रहितं विशालं तद्धर्मवृक्षकुसुमं मुनयो वदन्ति ॥ ५५ 56) मृत्यूत्पत्तिविवर्जितं निरुपमं दृग्ज्ञानवीर्योर्जितं व्याधिवातविवश्चितं शिवपदं नित्यात्मसौख्याश्चितम् । त्रैलोक्यप्रभुवल्लभं कथमपि प्राप्येत यद् दुर्लभं प्रध्वस्ताखिलकर्मतो बुधजनास्तद् बुध्यतां धर्मतः ॥ ५६ __जिसके चरण करोडों देवों के द्वारा पूजे जाते हैं तथा देवांगनाएँ जिसकी प्रतिदिन सेवा किया करती हैं ऐसा स्वर्ग का स्वामी इन्द्र जो शारीरिक और मानसिक सुखोंका उपभोग करता है वह सब उत्तम धर्मरूपी बीज से ही अंकुरित हुआ है । अर्थात् सुखरूप अंकुर धर्मरूप बीज से ही उत्पन्न होता है ॥५४॥ सर्वार्थ सिद्धि के देव ईर्ष्या, विषाद, उन्माद, मत्सर तथा गर्व से रहित हो कर जो सर्वथा अनुपम महान् सुख का अनुभव करते हैं वह उस धर्मरूपी वृक्षका ही पुष्प है; ऐसा मुनिजन कहते हैं ॥ ५५ ॥ जो मोक्षपद मरण व जन्म से रहित, अनुपम, केवलदर्शन, केवलज्ञान और अनंत सुख से उत्कर्ष को प्राप्त; अनेक रोगसमूह से रहित, शाश्वतिक आत्मसुख से सम्पन्न और त्रैलोक्यप्रभु जिनेश्वर को अतिशय प्रिय है उस दुर्लभ मोक्षपद को जो विद्वान् जन समस्त कर्मों को नष्ट करते हुये किसी प्रकार से प्राप्त करते हैं उसे धर्म के प्रभाव से ही समझना चाहिये ॥५६॥ ५४) 1 दिने दिने. 2 भुनक्ति. 3 इन्द्रः । ५५) 1 देवाः । ५६) 1 रहितम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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