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-१. ५३]
- पुण्यपापफलवर्णनम् - 51) आसीनानां हिमगिरिनिभे हर्म्यपृष्ठे कदाचित्
क्रीडोल्लासाद्वनविहरणैरन्यदा वृष्टिदृष्टैः । गर्ज गर्ज तरुणरमणीकण्ठमाश्लेषयन्त्यों
मेधैर्वर्षा इव सुकृतिनामाचरन्तीह दौत्यम् ॥ ५१ 52) तप्ताश्चण्डरुचेः करैरतिखरैग्रीष्मस्य मध्यंदिने
कष्टं कदममदिनों घनजलैवर्षासु भिन्नाङ्गकाः । शीतार्ता निशि दन्तवीणनमिव प्राप्ता हिमतौँ परे
पापात्संकुचिताः श्ववत्कथमहो तिष्ठन्ति भूशायिनः ॥ ५२ 53) अशेषताराग्रहभानुचन्द्राः
स्फुरन्ति दिक्चक्रलसत्प्रतापाः। हितेन देवा दिवि शं भजन्ते सदा सुरस्त्रीमुखमुग्धचित्ताः ॥ ५३
पुण्यवान् लोग हिमालय पर्वत के समान धवल उन्नत भवन के ऊपर बैठते हैं, कभी क्रीडा करने की उत्कण्ठा उत्पन्न होने पर वे उद्यान में विहार करते हैं। वर्षा ऋतु, वर्षाकाल में देखे गये मेघ जब गर्जना करते हैं तब उनके द्वारा तरुणी स्त्रियों को उन पुण्यवान् पतियों के कण्ठ को आलिंगन कराती है। इस प्रकार वह वर्षा मानो पुण्यवान् पुरुषों के दूतकार्य को ही करती है ॥५१॥
इसके विपरीत दरिद्र जन पाप के प्रभावसे ग्रीष्म ऋतु में दिन के मध्यभाग में सूर्यकी अत्यन्त तीक्ष्ण किरणों से संतप्त होते हैं, वर्षाकाल में कीचड से लिप्त रहने वाले उन दीन लोगों का शरीर मेघ के पानी से भीगा रहता है, शीतकाल में जब वे ठंड से पीडित होते हैं तब उनके दांत वीणा के समान बजते हैं तथा शैत्य से अतिशय पीडित होने पर वे अपने शरीर को कुत्ते के समान संकुचित कर जिस किसी प्रकार पृथिवी पर सो जाते हैं । इस प्रकार पापोदय से उन्हें ग्रीष्मादि ऋतुओं में दुःख भोगने पड़ते हैं ॥५२॥
जिनका प्रताप संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो रहा है तथा जिनका चित्त देविओं के मुखों पर आसक्त है ऐसे सब तारा, मंगलादिक ग्रह एवं सूर्य-चंद्र ये देव देवगति में उस हितकर धर्म के प्रभाव से ही सुख का उपभोग करते हैं ॥५३॥
५१) 1 पुण्यजनानाम्. 2 रमणीनां पुरुषकण्ठे आश्लेषयन्त्यो वर्षाः . 3 दूतीभावो दौत्यम् । ५२)1 पापिनः. 2 आईशरीराः. 3 शीतकाले. 4 पापिन: 5 कुक्कुरवत् . 6 जीवाः । ५३)1 पुण्येन. 2 स्वर्गे. 3 सौख्यम् . 4 लग्नचित्ताः।